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राज्यपाल विधेयक विवाद: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला!

राज्यपाल विधेयक विवाद

राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच विधेयकों को लेकर जारी संघर्ष यानि राज्यपाल विधेयक विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया है। यह फैसला न केवल तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि और डीएमके सरकार के विवाद को सुलझाता है, बल्कि पूरे भारत में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में मौजूद संवैधानिक संकट का भी समाधान करता है।

विधेयक की असंवैधानिकता पर राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की राय लेना अनिवार्य है!

यानि राज्यपाल विधेयक विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का अभूतपूर्व निर्देश: समय-सीमा का निर्धारण

8 अप्रैल, 2025 को जस्टिस जे बी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ द्वारा दिया गया यह महत्वपूर्ण फैसला विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए एक विशिष्ट समय-सीमा तय करता है। इस फैसले के माध्यम से शीर्ष अदालत ने कानून बनाने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का प्रयास किया है।

अनुच्छेद 143 का महत्वपूर्ण उपयोग

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को “असंवैधानिकता” के आधार पर अपने विचार के लिए सुरक्षित रखते हैं, तो राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की राय लेनी चाहिए।

“हमारा विचार है कि यद्यपि अनुच्छेद 143 के तहत इस न्यायालय को विधेयक भेजने का विकल्प अनिवार्य नहीं हो सकता है, फिर भी राष्ट्रपति को विवेक के उपाय के रूप में, कथित असंवैधानिकता के आधार पर राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित विधेयकों के संबंध में उक्त प्रावधान के तहत राय लेनी चाहिए।”

अनुच्छेद 143 क्या है और इसका महत्व क्यों है?

अनुच्छेद 143 भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो कानून या तथ्य के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने की राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित है। यह प्रावधान सरकार को मार्गदर्शन प्रदान करता है, विशेष रूप से उन मामलों में जहां संवैधानिक प्रश्न उठाए गए हों।

1978 के फैसले का हवाला

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 1978 में ‘इन री: द स्पेशल कोर्ट्स बिल’ के निर्णय का हवाला देते हुए कहा:

“उक्त संदर्भ में दिए गए कथन के आधार पर, हमारा यह सुविचारित मत है कि संवैधानिक न्यायालयों को किसी विधेयक के कानून बनने से पहले उसकी संवैधानिक वैधता के बारे में सुझाव देने या राय देने से रोका नहीं जा सकता है।”

पूर्व न्यायिक हस्तक्षेप के फायदे

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विधेयक के कानून बनने से पहले उसकी संवैधानिक वैधता पर विचार करने से कई फायदे हैं:

  1. सार्वजनिक संसाधनों की बचत – स्पष्ट रूप से असंवैधानिक विधेयक को अधिनियमित होने से रोकना
  2. विधानमंडल के विवेक का सम्मान – विधेयक पारित करने वाले संवैधानिक पदाधिकारियों को उचित कार्रवाई का अवसर
  3. पक्षपात की आशंका को कम करना – अनुच्छेद 143 का सहारा लेकर केंद्र सरकार के दृष्टिकोण में दुर्भावना की आशंका को कम किया जा सकता है

कार्यपालिका के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन

शीर्ष अदालत ने कार्यपालिका के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश देते हुए कहा:

“ऐसे मामलों में जहां किसी विधेयक को संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप न होने के आधार पर मुख्य रूप से सुरक्षित रखा गया है और इसमें संवैधानिक वैधता के प्रश्न शामिल हैं, कार्यपालिका को संयम बरतना चाहिए। यह अपेक्षा की जाती है कि संघीय कार्यपालिका को किसी विधेयक की वैधता निर्धारित करने में न्यायालयों की भूमिका नहीं निभानी चाहिए।”

राज्यपाल के पास सीमित विकल्प

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास किसी विधेयक की संवैधानिकता का पता लगाने का एकमात्र तरीका है – इसे राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखना, जिसके बाद राष्ट्रपति से अनुच्छेद 143 लागू करने की अपेक्षा की जाती है।

अन्य देशों से तुलना: श्रीलंका और किरिबाती का उदाहरण

राज्यपाल विधेयक विवाद पर न्यायमूर्ति पारदीवाला ने अपने निर्णय में श्रीलंका और किरिबाती गणराज्य के संवैधानिक प्रावधानों का भी उल्लेख किया, जहां इसी प्रकार के मैकेनिज्म मौजूद हैं:

श्रीलंका का मॉडल

“श्रीलंका के संविधान के अनुच्छेद 154एच में यदि राज्यपाल की राय है कि प्रांतीय परिषद द्वारा अधिनियमित कोई क़ानून असंवैधानिक है, तो वह विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकता है, जो बदले में श्रीलंका के सर्वोच्च न्यायालय को संदर्भित करने के लिए बाध्य है।”

किरिबाती का प्रावधान

“किरिबाती गणराज्य में भी इसी तरह की रूपरेखा अपनाई जाती है, जहाँ बेरेटिटेंटी (राज्य का संवैधानिक प्रमुख) को किसी विधेयक पर अपनी सहमति तभी देने की अनुमति देती है, जब उसे लगता है कि ऐसा विधेयक संविधान के साथ असंगत है।”

सरकारिया और पुंछी आयोग की अनुशंसाएं

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सरकारिया और पुंछी आयोगों की सिफारिशों का भी उल्लेख किया, जिन्होंने राष्ट्रपति को स्पष्ट रूप से अनुशंसा की थी कि वे ऐसे विधेयकों के संबंध में अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की राय लें, जिनके स्पष्ट रूप से असंवैधानिक होने की आशंका हो।

“हम इस बात से सहमत हैं कि अनुच्छेद 201 का एक उद्देश्य लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए खतरनाक विधेयक को रोकना भी है। हालांकि, हमारा यह भी मानना ​​है कि असंवैधानिक प्रतीत होने वाले विधेयक का न्यायिक दिमाग से मूल्यांकन किया जाना चाहिए।”

अनुच्छेद 143 के दायरे का विस्तार

राज्यपाल विधेयक विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में अनुच्छेद 143 के दायरे का भी विस्तार किया है। न्यायालय ने राज्यपाल के लिए सुरक्षा उपाय निर्धारित करते हुए, राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय की और अनुच्छेद 143 के तहत विधेयक पर उसकी राय लेने के लिए कहा।

न्यायालय की सीमाओं की पहचान

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि यदि संदर्भ नीति या राजनीति पर आधारित है, तो उसके हाथ बंधे हुए हैं:

“विशुद्ध रूप से राजनीतिक विचारों से जुड़े मामलों में न्यायालय द्वारा आत्म-लगाए गए संयम का प्रयोग राजनीतिक संकीर्णता के सिद्धांत के अनुरूप है, अर्थात न्यायालय शासन के उन क्षेत्रों में प्रवेश नहीं करते हैं जिनमें संविधान केवल कार्यपालिका को विशेषाधिकार देता है।”

नीतिगत निर्णयों पर सीमा

सुप्रीम कोर्ट ने एक उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया:

“उदाहरण स्वरूप, यह प्रश्न कि क्या अनुच्छेद 254(2) के तहत केंद्र सरकार के कानून के प्रतिकूल राज्य सरकार के कानून को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत किया जाना चाहिए या नहीं, काफी हद तक केंद्र सरकार की ओर से नीतिगत निर्णय है। ऐसे मामलों में, न्यायालय के हाथ बंधे होते हैं।”

निष्कर्ष: संघीय ढांचे को मजबूत करने का प्रयास

सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला भारत के संघीय ढांचे को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह फैसला राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच विधेयकों पर उत्पन्न होने वाले विवादों को सुलझाने के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा प्रदान करता है।

फैसला न केवल राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकारों को स्पष्ट करता है, बल्कि विधेयकों की संवैधानिक वैधता सुनिश्चित करने में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को भी रेखांकित करता है।

आने वाले समय में यह फैसला राज्यों और केंद्र के बीच विधायी संबंधों को नई दिशा देगा और संवैधानिक संस्थाओं के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करने में मदद करेगा।

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