सिंधु जल संधि पर रोक: क्या भारत को पुनर्विचार की आवश्यकता है?

भारत-पाकिस्तान जल सहभागिता का इतिहास
भारतीयों की तकलीफ – “हम पानी देते हैं, लेकिन पाकिस्तान खून निर्यात करता है”। इस भावना के चलते, भारत सरकार ने अप्रैल 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद सिंधु जल संधि पर रोक लगाने का निर्णय लिया है।
यह निर्णय 1960 में स्थापित एक ऐतिहासिक जल-बंटवारे की व्यवस्था को बदलने का संकेत देता है, जिसने छह दशकों से अधिक समय तक दोनों देशों के बीच पानी के वितरण को नियंत्रित किया है। वर्तमान परिस्थितियों में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या इस संधि पर पुनर्विचार करना समय की मांग है।
सिंधु जल संधि का इतिहास और प्रमुख प्रावधान
1947 में विभाजन और स्वतंत्रता के बाद, भारत और पाकिस्तान ने बातचीत की और अंततः 1960 में विश्व बैंक के तत्वावधान में एक संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि ने सिंधु नदी बेसिन की छह नदियों – सिंधु, झेलम और चिनाब (पश्चिमी नदियाँ) तथा रावी, ब्यास और सतलुज (पूर्वी नदियाँ) के जल पर दोनों देशों के प्रभुत्व को परिभाषित किया।
संधि के अनुसार भारत को पूर्वी नदियों के पानी का विशेष उपयोग करने का अधिकार दिया गया, जबकि पाकिस्तान को पश्चिमी नदियों के अधिकांश प्राकृतिक प्रवाह पर नियंत्रण मिला। इसके अतिरिक्त, भारत को पश्चिमी नदियों पर सीमित अधिकार दिए गए, जिससे वह 3.6 एमएएफ तक जलाशयों का निर्माण कर बिजली उत्पादन और जम्मू-कश्मीर में सिंचाई के लिए पानी का उपयोग कर सके।
सिंधु जल संधि पर रोक: आज की वास्तविकता
अप्रैल 2025 में भारत ने पहलगाम आतंकी हमले के बाद सिंधु जल संधि पर रोक लगाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा जारी आधिकारिक बयान में कहा गया है कि “पाकिस्तान की ओर से जारी सीमा-पार आतंकवाद ने भारत को इस कदम को उठाने के लिए मजबूर किया है।”
यह निर्णय तीन चरणों में लागू किया जाएगा, जिसमें पहले चरण में नदियों और बांधों से गाद निकालने का काम किया जाएगा, जिससे भारत को अधिक पानी मिलेगा। जल शक्ति मंत्री ने स्पष्ट किया है कि “पाकिस्तान को एक बूंद पानी नहीं देने” का उद्देश्य है और इसके लिए सिंधु बेसिन नदियों के किनारे बांधों की क्षमता बढ़ाई जाएगी।
जल वितरण का समानता और न्याय का प्रश्न
जल वितरण सरल अंकगणित नहीं है। यह समान वितरण भी नहीं है, बल्कि न्यायसंगत वितरण है। बेसिन नियोजन और संबंधित संधियाँ जटिल निर्माण हैं, जिन्होंने हमेशा विशेषज्ञों को चुनौती दी है। अपने प्राकृतिक रूप में बहता पानी किसी का व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है, इसलिए इसके उपयोग का अधिकार न्यायपूर्ण होना चाहिए।
सिंधु जल संधि पर रोक लगाने से यह प्रश्न उठता है कि क्या 1960 में किया गया जल वितरण आज के परिवेश में उचित है। आलोचकों के अनुसार, पश्चिमी नदियों का 136 एमएएफ पानी पाकिस्तान को देने का फैसला आज के संदर्भ में पक्षपातपूर्ण लगता है, खासकर तब जब जम्मू-कश्मीर के किसान अक्सर सूखे से जूझते हैं।
वहीं, पूर्वी नदियों का महज़ 33 एमएएफ पानी भारत के लिए एक विडंबना है, जहाँ पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में भूजल स्तर खतरनाक रूप से गिर रहा है। यह असंतुलन विशेष रूप से चिंताजनक है, क्योंकि भारत एक ऊपरी तटवर्ती राज्य है।
संधि की एकतरफा समाप्ति का कानूनी पहलू
संधि का एकतरफा समापन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक अज्ञात मार्ग नहीं है। एकतरफा समाप्ति का कानूनी जोखिम भले ही कम लगे, लेकिन इतिहास इसकी गंभीरता को नज़रअंदाज़ नहीं करता। 2016 में दक्षिण चीन सागर मामले में फैलाए गए कानूनी विवादों ने दिखाया कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय एकतरफा कदमों को आसानी से स्वीकार नहीं करता।
भारत को पाकिस्तान और वैश्विक हितधारकों के साथ संवाद का रास्ता खुला रखना होगा। हालांकि, सिंधु जल संधि पर रोक से उत्पन्न होने वाले भौतिक प्रभाव सीमित हैं, क्योंकि जल संधि को खत्म करने से गुरुत्वाकर्षण द्वारा पानी का प्राकृतिक प्रवाह अपने आप बंद नहीं होता। जल संधि पानी के नल की तरह नहीं है, जहां वाल्व बंद करने पर पानी बंद हो जाए।
इसलिए, जमीनी स्तर पर संधि की समाप्ति का प्रभाव तभी संभव है जब भारत पानी का प्रवाह रोकने के लिए संरचनात्मक उपाय करे।
सिंधु जल संधि के संशोधन की संभावनाएं
भारत के पास द्विपक्षीय चर्चा द्वारा संधि के संशोधन का एक तर्कपूर्ण मामला है। वियना संधि के कानून में “परिस्थितियों के मौलिक परिवर्तन” के सिद्धांत को मान्यता दी गई है। हालांकि, 1980 में लागू हुआ यह कानून 1960 की सिंधु संधि पर सीधे लागू नहीं होता, फिर भी इसे अंतरराष्ट्रीय कानून के उभरते हुए प्रथागत नियम के रूप में देखा जा सकता है।
छह दशकों के बाद, परिस्थितियां बदल गई हैं- भारत की जरूरतें बढ़ी हैं, बेसिन में पानी की मात्रा बदली है, जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ा है, और पाकिस्तान में अवसादन की समस्या गंभीर हुई है। इन सभी कारणों से संधि पर पुनर्विचार आवश्यक है।
सर्वोत्तम जल उपयोग: नदियों के अधिकतम विकास की आवश्यकता
नदी के सर्वोत्तम या पूर्ण विकास का मतलब है समुद्र में होने वाली पानी की बर्बादी को रोकना। सिंधु जल संधि का अनुच्छेद VII नदियों के सर्वोत्तम विकास पर “भविष्य के सहयोग” का प्रावधान करता है। प्रकृति के इस अनमोल उपहार का संरक्षण दोनों देशों की जिम्मेदारी है।
पश्चिमी नदियां लगभग 136 एमएएफ पानी उत्पन्न करती हैं, जिसमें से 132 एमएएफ पाकिस्तान के पास है, जबकि भारत को जम्मू-कश्मीर में उपयोग के लिए मात्र 4 एमएएफ पानी मिलता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान इस पानी का पूर्ण उपयोग नहीं कर पा रहा है और लगभग 21 एमएएफ पानी समुद्र में बह जाता है।
सिंधु जल संधि पर रोक के बाद भारत के विकल्प
भारत चंद्रा और भागा नदियों को पूर्वी नदियों से जोड़ने के एक साहसिक प्रस्ताव पर विचार कर रहा है। हालाँकि, यह योजना सिर्फ़ इंजीनियरिंग का सवाल नहीं है – हिमाचल और जम्मू-कश्मीर के स्थानीय समुदायों की चिंताएँ, पर्यावरणीय प्रभाव आकलन, और अंतरराज्यीय जल विवादों का समाधान इसकी सफलता की कुंजी होगी।
ये दोनों नदियां, जो चिनाब (पश्चिमी नदी) की सहायक नदियां हैं, संगम से पहले संकरी घाटियों से होकर बहती हैं। इन नदियों को सुरंगों के माध्यम से पूर्वी नदियों (रावी, ब्यास और सतलुज) से जोड़ा जा सकता है।
इस तकनीकी समाधान से लगभग 3-4 एमएएफ पानी भारत को उपलब्ध हो सकता है, जिसका उपयोग पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच अंतर-राज्यीय जल विवादों को हल करने में किया जा सकता है।
सिंधु जल संधि और 2025 की नई वास्तविकता
अप्रैल 2025 में निलंबित की गई सिंधु जल संधि पर रोक ने भारत के हाथ मजबूत किए हैं। अब भारत सिंधु नदी प्रणाली की नदियों में जल भंडारण स्तर या प्रवाह के बारे में जानकारी पाकिस्तान के साथ साझा करने के लिए बाध्य नहीं है।
जल शक्ति मंत्रालय ने एक व्यापक योजना बनाई है जिसमें 20% तक पश्चिमी नदियों का पानी भारत में रोका जा सकता है। भारत के इस कदम ने पाकिस्तान में चिंता पैदा कर दी है, जहां 80% खेती और बिजली उत्पादन इन्हीं नदियों पर निर्भर है।
हालांकि, भारत ने स्पष्ट किया है कि यह कदम पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के जवाब में उठाया गया है और अंतरराष्ट्रीय जल-नियमों का पालन करते हुए लागू किया जाएगा।
निष्कर्ष: शांति और सहयोग का मार्ग
अब समय आ गया है कि भारत और पाकिस्तान अपने-अपने अड़ियल रुख को त्यागकर इस बात पर चर्चा करें कि वर्तमान में पाकिस्तान में समुद्र में बह रहे पानी की बर्बादी को कैसे रोका जाए और सिंधु संधि के अनुच्छेद VII के तहत दोनों देशों के साझा लाभ के लिए नदियों के इष्टतम विकास की योजना तैयार करें।
जल-विवादों के समाधान के लिए कूटनीतिक और तकनीकी दोनों प्रकार के प्रयास आवश्यक हैं। 2025 की नई परिस्थितियों में सिंधु जल संधि पर पुनर्विचार एक आवश्यक कदम है, लेकिन यह शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए।
भारत के केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने हाल ही में घोषित योजना के अनुसार, अगले पांच वर्षों में सिंधु बेसिन में जल प्रबंधन को मजबूत करने के लिए आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाएगा।
इसमें बेहतर जल भंडारण क्षमता, वर्षा जल संचयन और सूखे के प्रभाव को कम करने के उपाय शामिल हैं। भारत का उद्देश्य है कि अपने क्षेत्र से होकर बहने वाले पानी का अधिकतम लाभ स्थानीय समुदायों को मिले, जबकि पड़ोसी देशों के अधिकारों का भी सम्मान हो।
Post Comment