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भारत में प्रेस की आज़ादी: बदलते समय में बिगड़ता संतुलन!

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत में प्रेस की आज़ादी

भारत में प्रेस की आज़ादी” एक समय पर लोकतंत्र की रीढ़ मानी जाती थी, लेकिन वर्तमान समय में इसकी स्थिति चिंताजनक हो चुकी है। जहां एक ओर सरकारें पारदर्शिता की बात करती हैं, वहीं दूसरी ओर पत्रकारों को धमकियों, कानूनी कार्रवाइयों और शारीरिक हमलों का सामना करना पड़ता है।

यह स्थिति न केवल पत्रकारिता के लिए बल्कि लोकतंत्र की आत्मा के लिए भी खतरा बन चुकी है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत में प्रेस की आज़ादी

2014 के बाद भारत में राजनीतिक परिदृश्य में जो बदलाव आया है, उसने प्रेस की आज़ादी पर गहरा प्रभाव डाला है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाशित वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों में से 151वें स्थान पर है। यह आंकड़ा बताता है कि भारत में प्रेस की स्वतंत्रता पर कितना खतरा मंडरा रहा है।

हाल की घटनाएं, जैसे पत्रकारों को आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत गिरफ्तार करना या रिपोर्टिंग करने से रोकना, ये दर्शाती हैं कि भारत में प्रेस की आज़ादी अब सिर्फ एक संवैधानिक अधिकार नहीं बल्कि एक संघर्ष बन चुकी है।

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पत्रकारों पर बढ़ते खतरे और सरकारी दमन

हरलीन कपूर और अर्जुन मेनन जैसे पत्रकारों के अनुभव बताते हैं कि आज रिपोर्टिंग एक साहसिक कार्य बन चुकी है। केवल सच्चाई सामने लाने के प्रयास में पत्रकारों को धमकियाँ, सोशल मीडिया ट्रोलिंग और यहां तक कि जेल की सजा भी भुगतनी पड़ रही है।

उत्तर प्रदेश में पत्रकारों को ‘देशद्रोही’ कह कर चुप कराने की कोशिशें, बुलडोजर से घर गिराने की धमकियाँ और रिपोर्टिंग से रोकने के लिए आउटलेट्स पर आर्थिक दबाव – ये सब संकेत हैं कि भारत में प्रेस की आज़ादी अब सत्ता के खिलाफ बोलने पर सजा भुगतने की वजह बन चुकी है।

प्रेस की स्वतंत्रता बनाम सरकार की छवि

सरकार का कहना है कि भारत में मीडिया स्वतंत्र है, लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही बयां करती है। मुख्यधारा के मीडिया हाउस सरकारी विज्ञापनों और राजनीतिक दबाव के चलते सत्ता का चेहरा चमकाने में लगे हैं, जबकि स्वतंत्र आवाज़ें जैसे द वायर, न्यूज़लॉन्ड्री और कारवां जैसी वेबसाइटें सत्ता की आलोचना करने की कीमत चुका रही हैं।

यही कारण है कि सोशल मीडिया और यूट्यूब चैनल जैसे वैकल्पिक माध्यम अब जनता की आवाज़ बनते जा रहे हैं। रवीश कुमार, आकाश बनर्जी और ध्रुव राठी जैसे पत्रकार अब स्वतंत्र पत्रकारिता की नई पहचान बन चुके हैं।

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प्रेस की आज़ादी और कानूनी हथियारबंदी

भारत में गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) जैसे कानूनों का दुरुपयोग पत्रकारों को दबाने के लिए किया जा रहा है। सिद्दीकी कप्पन का मामला इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहां उन्हें केवल एक खबर कवर करने के लिए दो साल बिना मुकदमे के जेल में रखा गया।

2019 के बाद इस कानून में ऐसा संशोधन हुआ कि अब किसी व्यक्ति को बिना अपराध सिद्ध हुए ‘आतंकवादी’ घोषित किया जा सकता है। इससे भारत में प्रेस की आज़ादी को कानूनी रूप से भी पंगु बना दिया गया है।

पत्रकारों का सरकारी उत्पीड़न

भारत में प्रेस की आज़ादी पर मंडरा रहे संकट को समझने के लिए उन पत्रकारों की कहानियों को जानना ज़रूरी है जो सच्चाई दिखाने की कोशिश में सरकारी उत्पीड़न का शिकार हुए। यहाँ ऐसे ही पाँच पत्रकारों के उदाहरण दिए गए हैं:

सिद्दीकी कप्पन – 2020 में एक दलित लड़की के सामूहिक बलात्कार और हत्या की रिपोर्टिंग करने के लिए उत्तर प्रदेश जा रहे पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को पुलिस ने मथुरा में गिरफ्तार किया और उन पर UAPA जैसे गंभीर कानूनों के तहत केस दर्ज किया गया। बिना मुकदमे के उन्हें लगभग दो साल जेल में रखा गया।

हरलीन कपूर (बदला हुआ नाम) – उत्तर प्रदेश में रिपोर्टिंग करने वाली इस महिला पत्रकार को कुंभ मेले में फैली बीमारियों पर रिपोर्टिंग करने से रोका गया। जब उन्होंने सच्चाई सामने लाने की कोशिश की, तो उन्हें घर गिरा देने की धमकी दी गई।

अर्जुन मेनन (बदला हुआ नाम) – मोदी सरकार की आलोचना करने के बाद उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलीं और उनके घर को बुलडोज़र से गिराने की धमकी दी गई। उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए हर बातचीत रिकॉर्ड करनी शुरू की।

आकाश हसन – कश्मीर क्षेत्र की रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली के इस स्वतंत्र पत्रकार को पुलिस और खुफिया एजेंसियों ने परेशान किया। उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया, विदेश यात्रा पर रोक लगी और उनका फोन भी जबरन लिया गया।

राणा अय्यूब – अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध पत्रकार राणा अय्यूब को कई बार ऑनलाइन ट्रोलिंग, यौन शोषण की धमकियाँ और ईडी द्वारा टार्गेट किया गया। उनके ऊपर मनी लॉन्ड्रिंग जैसे आरोप लगाए गए, जो कई विशेषज्ञों के अनुसार, पत्रकारिता में डर फैलाने का तरीका थे।

क्या उम्मीद की कोई किरण बाकी है?

हालांकि माहौल भयावह है, फिर भी पूरी तस्वीर निराशाजनक नहीं है। दक्षिण भारत जैसे क्षेत्रों में, जहां बीजेपी का सीधा शासन नहीं है, वहां पत्रकारों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता है। साथ ही, न्यायपालिका ने कुछ मामलों में मीडिया के पक्ष में निर्णय दिए हैं – जैसे विकटन कार्टून विवाद में सरकार की आपत्ति को अस्वीकार करना।

एन. राम जैसे वरिष्ठ पत्रकार मानते हैं कि अभी भी कुछ स्वतंत्र मंच, वेबसाइट्स और पत्रकार बचे हैं जो दबाव में भी सच्चाई सामने लाने की हिम्मत रखते हैं। यह उम्मीद की एक किरण है कि भारत में प्रेस की आज़ादी अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है।

भारत में प्रेस की आज़ादी की दिशा

भारत में प्रेस की आज़ादी को बचाने के लिए सिर्फ पत्रकारों को नहीं बल्कि आम नागरिकों को भी आगे आना होगा। जब जनता स्वतंत्र मीडिया का समर्थन करेगी, तभी यह दबाव सत्ता के खिलाफ संतुलन बनाए रखने में मददगार साबित होगा।

हमें यह समझना होगा कि पत्रकारों पर हमला केवल व्यक्तियों पर हमला नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव पर चोट है। सवाल पूछना, सच्चाई उजागर करना और सत्ता को जवाबदेह ठहराना – यही स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।

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