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भारत की विदेश नीति और दोहरे मानदंड: अंतरराष्ट्रीय मंच पर ‘धर्मनिरपेक्ष’, देश में ‘ध्रुवीकरण’?

विदेशों में भारत का धर्मनिरपेक्ष चेहरा

“पिछले कुछ वर्षों में भारत की विदेश नीति में एक नया रुझान स्पष्ट रूप से उभरा है जहां अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, बहुलवादी और शांतिप्रिय राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वहीं घरेलू राजनीति में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके सहयोगी दल अक्सर ध्रुवीकरण की रणनीति अपनाते हैं। हाल ही में 33 देशों में भेजे गए सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों की कार्यशैली इसी विरोधाभास की मिसाल पेश करती है।”

प्रतिनिधिमंडल की विदेश यात्रा और प्राथमिक उद्देश्य

मोदी सरकार ने पहलगाम आतंकी हमले और “ऑपरेशन सिंदूर” के बाद, आतंकवाद के खिलाफ भारत की “शून्य सहनशीलता” जीरो टॉलरेन्स नीति को विश्व स्तर पर प्रचारित करने के लिए 33 देशों में विशेष प्रतिनिधिमंडल भेजे। इन प्रतिनिधिमंडलों में पूर्व राजनयिकों, भाजपा नेताओं, सहयोगी दलों शिवसेना आदि और विपक्षी सांसदों को शामिल किया गया। इस पहल का उद्देश्य था भारत की छवि को एक उदार, बहुलवादी लोकतंत्र के रूप में प्रस्तुत करना और पाकिस्तान के आतंकवाद को वैश्विक विमर्श में केंद्रित करना।

विदेश में NDA नेताओं की “धर्मनिरपेक्ष” भाषा

यह अत्यंत रोचक है कि जिन भाजपा नेताओं को देश में अक्सर इस्लामोफोबिक बयानों के लिए जाना जाता है, उन्होंने मुस्लिम बहुल देशों में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत किया। उदाहरण के तौर पर, भाजपा सांसद निशिकांत दुबे, जो भारत में कट्टर बयानों के लिए कुख्यात हैं, उन्होंने अल्जीरिया में दिए गए एक बयान में कहा, “भारत में मुसलमानों को समान अधिकार प्राप्त हैं… हम सभी धर्मों का प्रतिनिधित्व करते हैं… हम एक स्वर में बोलते हैं।”

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दुबे ने यहां तक कहा कि भारत फिलिस्तीन के संबंध में हमेशा दो-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थक रहा है और हमास जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ हैं, परंतु फिलिस्तीनी जनता के साथ खड़े हैं। यह बयान आश्चर्यजनक इसलिए है क्योंकि भारत में अक्सर भाजपा के प्रवक्ता और समर्थक फिलिस्तीन का समर्थन करने वालों को “राष्ट्रविरोधी” कहकर आलोचना करते हैं।

विपक्ष का “रोल रिवर्सल”: पाकिस्तान पर हमलावर रुख

दूसरी तरफ, विदेश में प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बने विपक्षी नेताओं ने पाकिस्तान पर जिस भाषा में हमला किया, वह आमतौर पर भाजपा द्वारा प्रयोग की जाती है। AIMIM के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि भारत में पाकिस्तान से अधिक मुसलमान हैं और उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि संविधान का अनुच्छेद 25 सभी धर्मों को समान रूप से संरक्षण देता है।

यह दृश्याभास दर्शाता है कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का दबाव किस तरह राजनीतिक नेताओं को घरेलू बयानबाजी से विपरीत भाषा अपनाने पर मजबूर करता है।

NDA की “मुस्लिम नीति” का विदेश में पुनर्परिभाषण

भारतीय विदेश नीति के इस अध्याय में मुस्लिम जनसंख्या और उनके अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया गया। निशिकांत दुबे ने विदेश में यह दावा किया कि भारत में मुसलमानों की स्थिति कई “धर्मनिरपेक्ष” देशों से बेहतर है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि प्रतिनिधिमंडल में विभिन्न धर्मों के सदस्य एकजुट होकर कार्य कर रहे हैं।

ऐसे बयान अंतरराष्ट्रीय समुदाय को शांतिप्रिय संदेश देने के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, लेकिन देश के भीतर जारी सांप्रदायिक तनाव और भीड़ हिंसा के मामले इस दावे को कमजोर करते हैं।

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फिलिस्तीन नीति: भाजपा का “डिप्लोमैटिक यू-टर्न”

भारत हमेशा से फिलिस्तीन समर्थक रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में इज़राइल के साथ बढ़ती निकटता और फिलिस्तीन की उपेक्षा के आरोप लगे हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल में पहली बार भारतीय प्रधानमंत्री ने इज़राइल की स्वतंत्र यात्रा की, जिसमें फिलिस्तीन को शामिल नहीं किया गया था। लेकिन इस प्रतिनिधिमंडल में भाजपा के सांसदों ने स्पष्ट रूप से कहा कि “भारत दो-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन करता है” और “हम फिलिस्तीन की जनता के साथ हैं।”

यह कूटनीतिक पैंतरेबाज़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की नैतिक स्थिति को मज़बूत करने का प्रयास हो सकती है, परंतु घरेलू राजनीतिक बयानों से यह असंगति भारत की नीति में एकरूपता की कमी को उजागर करती है।

पाकिस्तान को लेकर प्रतिनिधिमंडल का रुख

भाजपा सांसद बैजयंत पांडा के नेतृत्व वाले प्रतिनिधिमंडल ने पाकिस्तान को वैश्विक आतंकवाद का केंद्र करार दिया। उन्होंने कहा कि भारत ने FATF से अपील की है कि पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में रखा जाए और किसी भी देश को उसे आर्थिक सहायता नहीं देनी चाहिए जब तक वह आतंकवाद के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं करता।

हालांकि, उन्होंने यह भी जोड़ा कि “भारत पाकिस्तान के नागरिकों के खिलाफ नहीं है, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ है।” यह संतुलित रुख कूटनीति में आवश्यक हो सकता है, लेकिन देश में नेताओं के तीखे बयानों से यह स्पष्ट संकेत नहीं मिलता।

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भाजपा की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय नीति में विरोधाभास

  1. घरेलू मंच पर भाजपा कई बार “मुस्लिम तुष्टीकरण” और “वोट बैंक राजनीति” के आरोप विपक्ष पर लगाती है।
  2. वहीं अंतरराष्ट्रीय मंच पर वह खुद भारत को “धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी” कहती है।
  3. फिलिस्तीन पर भाजपा का घरेलू विरोध, जबकि विदेश में समर्थन।
  4. पाकिस्तान पर आक्रामक बयानों के साथ-साथ संवाद की संभावना की बातें।

ये विरोधाभास न केवल भाजपा की नीति की दोहरी प्रकृति को दर्शाते हैं, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि किस प्रकार भारत की विदेश नीति और घरेलू राजनीति एक-दूसरे से टकरा सकती हैं।

गुलाम नबी आज़ाद की भूमिका और NAM संदर्भ

प्रतिनिधिमंडल में शामिल कांग्रेस के पूर्व वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद की भूमिका विशेष रही। उनके फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) के साथ पुराने संबंधों और गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) से जुड़ाव को महत्वपूर्ण बताया गया। इससे यह संकेत मिलता है कि भारत अपनी ऐतिहासिक कूटनीतिक विरासत को आज भी उपयोग में लाना चाहता है, भले ही मौजूदा सरकार ने NAM जैसे मंचों को अतीत में नजरअंदाज किया हो।

“एक भारत, दो भाषाएं”?

भारत की विदेश नीति और घरेलू राजनीति के इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि सत्तारूढ़ दल की रणनीति दोहरी है—देश के अंदर भावनात्मक ध्रुवीकरण और विदेश में लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष छवि का निर्माण। यह कूटनीतिक यथार्थ है या राजनीतिक अवसरवाद, यह आने वाला समय बताएगा। परंतु यह ज़रूर कहा जा सकता है कि जब प्रतिनिधिमंडल के एक ही नेता देश में इस्लामोफोबिक टिप्पणी करते हैं और विदेश में धर्मनिरपेक्षता की मिसाल पेश करते हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र की साख को प्रश्नचिह्न के घेरे में ला देता है।

 

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