बिना ट्रायल लंबी हिरासत पर बॉम्बे हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी

बॉम्बे हाईकोर्ट ने बिना ट्रायल लंबी हिरासत पर तीखा रुख अपनाते हुए आरोपी तारिक परवीन को जमानत दे दी। परवीन को 2020 के मकोका और जबरन वसूली मामले में गिरफ्तार किया गया था और वह 5 वर्षों से ट्रायल के बिना जेल में था। 8 मई को जस्टिस मिलिंद जाधव की पीठ ने कहा कि यह हिरासत “पूर्व-परीक्षण दंड” के समान है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। कोर्ट ने यह भी कहा कि आरोपी दोष सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाता है, और लंबे समय तक जेल में रहना न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत है। बिना ट्रायल लंबी हिरासत को असंवैधानिक बताया ।
अदालत की सख्त टिप्पणी :
- परवीन को फरवरी 2020 में गिरफ्तार किया गया था
- उस पर मकोका और आईपीसी की गंभीर धाराओं में केस दर्ज है
- राज्य सरकार ने उसे संगठित अपराध सिंडिकेट का हिस्सा बताया
- कोर्ट ने तर्क दिया कि दोष सिद्ध होने तक आरोपी को निर्दोष मानना होगा
- बिना सुनवाई के कैद न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है
न्यायालय ने यह भी माना कि सबूतों के मूल्यांकन के बाद परवीन की संलिप्तता साबित हो सकती है। लेकिन जब तक दोष सिद्ध न हो, तब तक उस पर सजा थोपना असंवैधानिक है। । फिर भी हाईकोर्ट ने उसकी जमानत को जायज ठहराया और 25,000 रुपये के निजी मुचलके पर रिहा करने का आदेश दिया।
दाऊद इब्राहिम से तारिक परवीन का रिश्ता और उसका कानूनी प्रभाव :
तारिक परवीन को अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम का करीबी बताया गया है, जो भारत में आतंकी गतिविधियों के लिए कुख्यात है। परवीन पर आरोप है कि वह दाऊद के सिंडिकेट का हिस्सा था और संगठित अपराध को अंजाम देता था। हालांकि, कोर्ट ने साफ किया कि बिना दोषसिद्धि किसी को सजा देना कानून के खिलाफ है। भारत में दाऊद इब्राहिम पर कई केस दर्ज हैं, लेकिन उसके नेटवर्क से जुड़े संदिग्धों को भी बिना ट्रायल सालों तक कैद में रखना न्यायिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है।
ऐतिहासिक सन्दर्भ और कानूनी संदेश :
ऐसे मामलों में भारत का आपराधिक न्यायशास्त्र कई बार सवालों के घेरे में आया है। अतीत में कई विचाराधीन कैदियों को ट्रायल में देरी के चलते वर्षों जेल में रहना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार यह दोहराया है कि ट्रायल में देरी नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है। तारिक परवीन के मामले ने फिर यह बहस छेड़ दी है कि मकोका जैसे सख्त कानूनों का दुरुपयोग कैसे होता है। यह फैसला भविष्य के लिए एक चेतावनी है कि राज्य तंत्र किसी भी आरोपी को न्याय से पूर्व दंड नहीं दे सकता।
विचाराधीन कैदियों और उनके मौलिक अधिकार :
भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकार देता है, चाहे वह आरोपी हो या दोषी। अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार है, जिसे केवल कानून के अनुसार ही छीना जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार दोहराया है कि विचाराधीन कैदियों को भी त्वरित सुनवाई का अधिकार है। ऐसे मामलों में न्यायिक देरी न केवल आरोपी को नुकसान पहुंचाती है बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना को भी ठेस पहुंचाती है।
- अनुच्छेद 21 विचाराधीन कैदियों पर भी लागू होता है
- सुप्रीम कोर्ट ने त्वरित सुनवाई को आवश्यक बताया
- लंबी हिरासत बिना दोषसिद्धि के असंवैधानिक मानी जाती है
- कई राज्यों में विचाराधीन कैदी 5–10 वर्षों से बंद हैं
- न्यायिक प्रक्रिया की गति धीमी होने से स्वतंत्रता बाधित होती है
राज्यों की भूमिका और विचाराधीन बंदियों की स्थिति :
भारत की जेलों में विचाराधीन बंदियों की संख्या दोषियों से कहीं अधिक पाई जाती है।
NCRB के अनुसार, 75% से अधिक जेल कैदी विचाराधीन की श्रेणी में आते हैं।
राज्यों द्वारा चार्जशीट में देरी और सरकारी वकीलों की कमी मुख्य कारण हैं।
कोर्ट ने लंबी हिरासत को ट्रायल से पहले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कहा।
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