संविधान की प्रस्तावना पर धनखड़ का संवैधानिक मत: कहा यह अपरिवर्तनीय!

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सोमवार को भारतीय संविधान की प्रस्तावना की तुलना बच्चों के लिए माता-पिता से की, यह कहते हुए कि जिस प्रकार कोई अपने माता-पिता को नहीं बदल सकता, उसी प्रकार संविधान की प्रस्तावना में बदलाव संभव नहीं है। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एडवांस्ड लीगल स्टडीज (NUALS) में छात्रों और शिक्षकों से बातचीत करते हुए धनखड़ का संवैधानिक मत स्पष्ट रूप से सामने आया, जो संविधान की मूलभूत संरचना के प्रति उनके दृढ़ विश्वास को दर्शाता है।
प्रस्तावना: माता-पिता के समान और अपरिवर्तनीय
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना की तुलना बच्चों के माता-पिता से की है, जोर देते हुए कि इसे बदला नहीं जा सकता। उन्होंने इस तुलना के माध्यम से प्रस्तावना की अपरिवर्तनीय प्रकृति पर बल दिया है। उनका यह बयान संविधान के मूल सिद्धांतों के प्रति गहरे सम्मान को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि प्रस्तावना को देश की आत्मा माना जाना चाहिए।
- प्रस्तावना व्यक्ति के माता-पिता की तरह होती है, जिसे बदला नहीं जा सकता है।
- यह भारतीय संविधान का एक अनिवार्य और मौलिक हिस्सा है जिसे छुआ नहीं जा सकता।
- उपराष्ट्रपति ने अपने संबोधन में प्रस्तावना की पवित्रता और स्थायित्व पर विशेष जोर दिया।
वे चाहते हैं कि यह संदेश युवाओं तक स्पष्ट रूप से पहुंचे।
धनखड़ का संवैधानिक मत एवं आपातकाल में हुए बदलावों पर खेद
धनखड़ ने इस बात पर गहरा खेद व्यक्त किया कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में आपातकाल के दौरान बदलाव किया गया था। उन्होंने इस 21 महीने की अवधि को भारतीय लोकतंत्र का “सबसे काला दौर” बताया है, जब सैकड़ों-हजारों लोग जेलों में बंद थे। यह टिप्पणी भारतीय इतिहास के उस संवेदनशील कालखंड की याद दिलाती है।
- भारत को छोड़कर किसी भी देश ने आपातकाल के दौरान अपनी प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया था।
- हमारे संविधान की प्रस्तावना उस समय बदली गई जब सैकड़ों-हजारों लोग जेल में थे।
- यह बदलाव हमारे लोकतंत्र के लिए एक बेहद चुनौती भरा और दुखद समय था।
- उन्होंने इस ऐतिहासिक विसंगति को उजागर किया।
न्यायपालिका की भूमिका और चिंताओं का उल्लेख
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने NUALS में छात्रों को संबोधित करते हुए संविधान के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने न्यायपालिका में हाल के घटनाक्रमों के बारे में चिंता जताई, विशेष रूप से एक न्यायाधीश के आवास पर नकदी पाए जाने का जिक्र किया। धनखड़ ने कानून के शासन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए इस मामले में तत्काल एफआईआर दर्ज करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
- उन्होंने न्यायपालिका की शुचिता और पारदर्शिता बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया है।
- सरकार की विभिन्न शाखाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण पर भी उन्होंने चर्चा की।
- यह लोकतंत्र के सुचारु संचालन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसे बनाए रखना चाहिए।
वे चाहते हैं कि छात्र इन मुद्दों पर गंभीर चर्चा करें।
‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों पर चल रही बहस
उपराष्ट्रपति का यह बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों की समीक्षा की मांग की पृष्ठभूमि में आया है। आरएसएस का तर्क है कि ये शब्द 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए जोड़े गए थे। ये शब्द 1950 में अपनाए गए मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे, जिसे डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने तैयार किया था।
- इन शब्दों को आपातकाल के दौरान शामिल किया गया था, जब मौलिक अधिकार निलंबित थे।
- आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने इस मुद्दे पर पुनर्विचार का आह्वान किया है।
- उनका कहना है कि बाबासाहेब अंबेडकर ने कभी भी इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया था।
यह एक महत्वपूर्ण संवैधानिक बहस को जन्म दे रहा है।
आरएसएस के आह्वान और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं
RSS के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ पर इस मुद्दे को उठाया। उन्होंने 26 जून को दिल्ली में कहा कि ये शब्द तब जोड़े गए थे जब संसद काम नहीं कर रही थी। होसबोले की टिप्पणी से तत्काल राजनीतिक विवाद छिड़ गया, जिसमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रतिक्रिया दी। राहुल गांधी ने दावा किया कि आरएसएस देश को चलाने के लिए संविधान नहीं बल्कि “मनुस्मृति” चाहता है।
- बाद में इस मुद्दे पर चर्चा हुई, लेकिन प्रस्तावना से उन शब्दों को हटाने का प्रयास नहीं हुआ।
- होसबोले ने सवाल किया, “क्या समाजवाद के विचार भारत के लिए एक विचारधारा के रूप में शाश्वत हैं?”
- यह प्रश्न देश के वैचारिक भविष्य पर एक बड़ी बहस को आमंत्रित करता है।
यह विवाद राजनीतिक गलियारों में गरमाया हुआ है।
केंद्रीय मंत्रियों का समर्थन और पूर्व विवाद
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आह्वान के बाद, केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और जितेंद्र सिंह ने भी समीक्षा के लिए अपना समर्थन जताया था। 27 जून को, चौहान ने दावा किया कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द भारतीय संस्कृति का मूल नहीं हैं। उन्होंने संविधान से इन्हें हटाने पर चर्चा करने का आह्वान किया। जितेंद्र सिंह ने कहा कि कोई भी ‘सही सोच वाला नागरिक’ इन शब्दों को असाधारण परिस्थितियों में जोड़ा गया मानेगा।
- 2015 में, गणतंत्र दिवस पर भाजपा सरकार के विज्ञापनों में इन दो शब्दों को हटाए जाने से विवाद हुआ।
- सितंबर 2023 में, नए संसद भवन में संविधान की प्रतियों से इन शब्दों के गायब होने का दावा हुआ।
- यह दर्शाता है कि इन शब्दों को लेकर अतीत में भी बहसें होती रही हैं।
यह मुद्दा लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट रुख
नवंबर में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना से इन दो शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं के एक बैच को खारिज कर दिया था। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि कई दशकों बाद संवैधानिक संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध औचित्य नहीं है। यह सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक निर्णय था। इस फैसले ने इस मुद्दे पर न्यायिक स्थिति को स्पष्ट किया है।
- यह निर्णय संवैधानिक संशोधनों की स्थिरता और वैधता को मजबूत करता है।
- इससे भविष्य में ऐसे ही मुद्दों को उठाने की संभावना कम होती है।
- न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक संशोधन को इतनी देर बाद चुनौती देना उचित नहीं है।
यह कानूनी रूप से इस बहस को विराम देता है।
युवाओं को संवैधानिक जागरूकता का आह्वान
उपराष्ट्रपति ने संविधान दिवस और आपातकाल पर छात्रों के लिए निबंध प्रतियोगिताओं की घोषणा की। इसमें विजेताओं को भारतीय संसद का दौरा करने का मौका दिया जाएगा। यह पहल छात्रों को इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर सोचने और चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित करती है। उपराष्ट्रपति ने छात्रों से इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा में शामिल होने का भी आग्रह किया।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने फिर दोहराया कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना बच्चों के लिए माता-पिता की तरह है और इसे बदला नहीं जा सकता, चाहे कोई कितनी भी कोशिश कर ले। यह धनखड़ का संवैधानिक मत संविधान की मूलभूत संरचना और अखंडता पर जोर देता है।
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