मानवाधिकार हनन: दिल्ली पुलिस पर गंभीर आरोप !

मानवाधिकार संगठनों ने उजागर किया मामला
दिल्ली पुलिस पर गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे हैं। प्रतिष्ठित मानवाधिकार संस्थाओं ने एक रिपोर्ट जारी की है। इसके अनुसार पुलिस ने बंगाली भाषी मुस्लिम मजदूरों को गलत तरीके से हिरासत में लिया। उन पर झूठा आरोप लगाया गया कि वे बांग्लादेशी नागरिक हैं। यह घटना 25 जून 2024 को हरियाणा के झज्जर में घटी।
शालीमार बाग पुलिस स्टेशन के अधिकारियों ने एक ईंट भट्ठे पर छापा मारा। उन्होंने सात लोगों को गिरफ्तार किया। इनमें छह वर्ष का एक बच्चा भी शामिल था। पीड़ित सभी पश्चिम बंगाल के मूल निवासी हैं। उनके पास वैध भारतीय पहचान पत्र मौजूद हैं।
भेदभावपूर्ण प्रोफाइलिंग का शिकार
मानवाधिकार कार्यकर्ता किरीट रॉय ने इसकी पुष्टि की। उनका कहना है कि यह भाषाई और धार्मिक प्रोफाइलिंग का मामला है। पुलिस ने केवल बंगाली बोलने वाले मुसलमानों को निशाना बनाया। इस घटना ने मानवाधिकार सुरक्षा तंत्र पर सवाल खड़े कर दिए।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को तीन जुलाई को एक पत्र भेजा गया। इसमें तत्काल कार्रवाई की मांग की गई। गिरफ्तार लोगों को थाने में भोजन और पानी से वंचित रखा गया। उन्हें कानूनी सहायता लेने से रोका गया। परिवारों से संपर्क करने की अनुमति नहीं दी गई।
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ऐतिहासिक समझौते के तहत नागरिकता
हिरासत में लिए गए श्रमिकों का संबंध 2015 के भूमि सीमा समझौते से है। भारत और बांग्लादेश के बीच यह ऐतिहासिक करार हुआ था। इसके तहत 51 बांग्लादेशी एन्क्लेव भारतीय क्षेत्र में शामिल हुए। लगभग 14,215 लोगों को भारतीय नागरिकता प्रदान की गई। भारतीय उच्चायोग ने इनके पुनर्वास की प्रक्रिया संभाली।
केंद्र सरकार ने इन्हें मुआवजा और रोजगार देने का वादा किया था। लेकिन अधिकांश को कोई सहायता नहीं मिली। पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले में इनके लिए बस्तियाँ बनाई गईं। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि 72% परिवारों को अभी तक मुआवजा नहीं मिला। इस कारण उन्हें दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों में मजदूरी करने जाना पड़ा।
हिरासत में यातना के चौंकाने वाले विवरण
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने यातना के साक्ष्य एकत्र किए हैं। जाहिरुल मिया नामक श्रमिक को थाने में बेरहमी से पीटा गया। उनके तलवों और हथेलियों पर लोहे की रॉड से प्रहार किया गया। इस पीड़ा को फालंका यातना कहा जाता है। तीन दिन बाद उन्हें बिना फोन और पैसे के छोड़ दिया गया। उनकी पत्नी अजीमा ने मकतूब मीडिया को बताया कि पुलिस ने धोखा दिया।
उनके पति से कहा गया कि केवल दस्तावेज सत्यापन होगा। लेकिन थाने ले जाकर उन्हें बंद कर दिया गया। अजीमा अभी भी अपने पति के बारे में नहीं जानतीं। अन्य बंदियों को दो दिन तक भूखा रखा गया। एक गर्भवती महिला को चिकित्सा सहायता से वंचित रखा गया। यह मानवाधिकार कानूनों का सीधा उल्लंघन है।
राष्ट्रव्यापी भेदभाव का पैटर्न
यह घटना भारत में एक व्यापक प्रवृत्ति का हिस्सा है। असम में एनआरसी प्रक्रिया के दौरान भी ऐसे मामले सामने आए। दिल्ली पुलिस ने 2023 में 2,100 लोगों को “अवैध बांग्लादेशी” बताकर निर्वासित किया। स्वतंत्र अनुसंधान बताते हैं कि इनमें से 23% भारतीय नागरिक थे।
अधिकांश पीड़ित बंगाली मुस्लिम समुदाय से संबंध रखते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े चिंताजनक हैं। पिछले पाँच वर्षों में भाषाई प्रोफाइलिंग के मामले 170% बढ़े हैं। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में ऐसे उत्पीड़न सबसे अधिक दर्ज किए गए। इन राज्यों में विदेशी ट्रिब्यूनल अस्तित्व में नहीं है। इसलिए पुलिस मनमाने ढंग से गिरफ्तारी करती है।
कानूनी सुरक्षा तंत्र की विफलता
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 50 गिरफ्तारी का कारण बताना अनिवार्य करती है। जेल मैनुअल के नियम 7 के अनुसार हिरासत में लिए गए व्यक्ति को तुरंत वकील से मिलने का अधिकार है। लेकिन इस मामले में सभी कानूनी प्रावधानों की अवहेलना की गई।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 1993 में हिरासत में यातना रोकने के दिशानिर्देश जारी किए थे। इनके अनुसार किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए। महिलाओं और बच्चों की पूछताछ महिला अधिकारी की उपस्थिति में होनी चाहिए। झज्जर मामले में इनमें से कोई प्रक्रिया पालन नहीं की गई।
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सरकारी उदासीनता के गंभीर परिणाम
भूमि सीमा समझौते के तहत आए नागरिकों को सरकार ने भुला दिया। पश्चिम बंगाल सरकार ने पुनर्वास योजना के लिए 1,200 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। लेकिन भ्रष्टाचार के कारण यह राशि उन तक नहीं पहुँची। एक आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार केवल 18% परिवारों को ही पक्के घर मिले।
42% के पास अभी भी अस्थायी झोपड़ियों में रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इस आर्थिक विवशता के कारण उन्हें दूसरे राज्यों में मजदूरी करनी पड़ती है। ठेकेदार अक्सर उनका शोषण करते हैं। वे उन्हें न्यूनतम मजदूरी से भी कम भुगतान करते हैं। सरकारी उदासीनता ने इन्हें मानवाधिकार हनन के प्रति संवेदनशील बना दिया है।
न्याय की लड़ाई और सामाजिक प्रतिक्रिया
किरीट रॉय की संस्था ‘मसूम’ ने दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। इसमें हिरासत में लिए गए सभी श्रमिकों की तत्काल रिहाई की मांग की गई है। साथ ही पीड़ितों को 20 लाख रुपये मुआवजे का प्रावधान रखा गया है। दिल्ली के विधि विशेषज्ञ प्रोफेसर फैजान मुस्तफा ने इस मामले पर टिप्पणी की।
उन्होंने कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का स्पष्ट उल्लंघन है। सोशल मीडिया पर #StopTargetingBengalis टैग ट्रेंड कर रहा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार को पत्र लिखा है। उन्होंने घटना की निंदा करते हुए जांच की मांग की है।
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने भारत सरकार से तुरंत कार्रवाई का आग्रह किया है।
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आर्थिक विकास बनाम मानवाधिकार संरक्षण
भारत वैश्विक मंच पर आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा करता है। लेकिन देश के भीतर प्रवासी श्रमिकों की स्थिति चिंताजनक है। श्रम मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि भारत में 14 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं। इनमें से 78% अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। उन्हें सामाजिक सुरक्षा का कोई लाभ नहीं मिलता। कोविड-19 महामारी के दौरान इनकी दुर्दशा उजागर हुई थी।
बंगाली मुस्लिम श्रमिक इस समूह के सबसे कमजोर वर्ग में आते हैं। उनके खिलाफ भेदभाव दोहरी मार का काम करता है। पहला धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण। दूसरा भाषाई पहचान के आधार पर। अर्थशास्त्री डॉ. ज्योतिर्मय बसु का मानना है कि यह आर्थिक विकास को नुकसान पहुँचाता है। देश अपनी 7% कार्यबल की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पाता।
निष्कर्ष: मानवाधिकारों की पुनर्स्थापना जरूरी
यह घटना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चेतावनी है। मानवाधिकारों की सुरक्षा किसी भी प्रगतिशील समाज की आधारशिला होती है। केंद्र और राज्य सरकारों को तुरंत तीन कदम उठाने चाहिए।
पहला, झज्जर मामले में शामिल पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई करनी चाहिए। दूसरा, भूमि सीमा समझौते के तहत आए नागरिकों का पुनर्वास पूरा करना चाहिए। तीसरा, पुलिस बलों को भाषाई और धार्मिक संवेदनशीलता प्रशिक्षण देना चाहिए।
जैसा कि किरीट रॉय ने कहा है, यह केवल कानूनी मुद्दा नहीं है। यह हमारी सामूहिक मानवीय चेतना की परीक्षा है। अजीमा जैसे परिवारों को न्याय मिलना ही चाहिए। तभी भारत वास्तव में एक लोकतांत्रिक महाशक्ति बन पाएगा।
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