ईरान पर हमला: मोदी सरकार की SCO स्टेटमेंट सहमति पर बहाना
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की परमाणु एजेंसी IAEA ने ईरान को क्लीन चिट दी है। उन्होंने कहा कि ईरान परमाणु बम नहीं बना रहा है। फिर भी इजरायल और अमेरिका ने ईरान पर हमला किया। यह एक गंभीर मुद्दा है। शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के ज्वाइंट स्टेटमेंट ड्राफ्ट में इसे शामिल किया गया था। लेकिन भारत ने इस ड्राफ्ट पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। क्या यह मोदी सरकार की धूर्त नीति है? या फिर कूटनीतिक चाल?
IAEA की क्लीन चिट और ईरान पर हमले का सवाल
IAEA की रिपोर्ट स्पष्ट है। ईरान ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु कानून नहीं तोड़े। उनका कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है। यह एक महत्वपूर्ण प्रमाण है। इसके बावजूद हुआ ईरान पर हमला। इजरायल और अमेरिका ने यह कार्रवाई की। उनके पक्ष में क्या तर्क हैं? SCO जैसे संगठन को इस मुद्दे पर बोलना चाहिए था। क्योंकि ईरान भी SCO का सदस्य देश है। सदस्य पर हमला संगठन के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
भारत की चिंता दूसरी थी। उन्होंने हस्ताक्षर न करने का कारण बताया। ड्राफ्ट में बलूचिस्तान का जिक्र था। भारत इसे अपना अभिन्न अंग मानता है। साथ ही, पहलगाम आतंकी हमले का उल्लेख नहीं था। यह हमला जम्मू-कश्मीर में हुआ था। पाकिस्तानी आतंकवादियों ने इसे अंजाम दिया। भारत चाहता था कि इसे भी ड्राफ्ट में शामिल किया जाए। ये दोनों मुद्दे भारत के लिए संवेदनशील हैं।
कूटनीति की कमी या जानबूझकर चुप्पी?
सवाल यह उठता है कि क्या कोई बेहतर तरीका नहीं था? क्या भारत सिर्फ हस्ताक्षर से इनकार करके पीछे हट गया? रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह SCO बैठक में मौजूद थे। उन्होंने पाकिस्तान की निंदा की। लेकिन यह निंदा सीधे नाम लेकर नहीं, बल्कि इशारों में थी। वे मंच से स्पष्ट रूप से पाकिस्तान का नाम लेकर आतंकवाद का विरोध कर सकते थे। साथ ही, वे ईरान पर हमले के मुद्दे पर भी बोल सकते थे।
पृथक विज्ञप्ति कांसेप्ट (सप्लीमेंट्री नोट)
एक और रास्ता भी था। भारत ज्वाइंट स्टेटमेंट पर हस्ताक्षर कर सकता था। साथ ही एक पृथक विज्ञप्ति (सप्लीमेंट्री नोट) जारी कर सकता था। इस नोट में पहलगाम हमले और पाकिस्तान की भूमिका की कड़ी निंदा होती। साथ ही, ईरान पर हमले की भी निंदा होती। इससे भारत अपनी दोनों चिंताओं को प्रभावी ढंग से उठाता। उसे SCO के सामूहिक बयान से भी अलग नहीं होना पड़ता।
मोदी सरकार के फैसले पर आलोचना हो रही है। कई लोग इसे धूर्तता मानते हैं। उनका कहना है कि भारत ने ईरान पर हमले जैसे बड़े मुद्दे को अनदेखा कर दिया। इसके बदले एक संकीर्ण बहाने का इस्तेमाल किया। यह अमेरिका और इजरायल को खुश करने की नीति लगती है। क्या भारत की विदेश नीति अब पश्चिम के इशारों पर चल रही है? यह एक गंभीर प्रश्न है।
जनता को यह समझना मुश्किल लगता है। IAEA ने ईरान को बरी किया है। फिर भी हुआ ईरान पर हमला। SCO इसकी निंदा करना चाहता था। भारत को इसका समर्थन करना चाहिए था। पहलगाम हमला निश्चित रूप से जघन्य था। पाकिस्तान की आतंकवादी फैक्ट्री की निंदा भी जरूरी थी। लेकिन क्या ईरान पर हमले जैसे वैश्विक मुद्दे को छोड़ना उचित था? क्या दोनों मुद्दों को एक साथ नहीं उठाया जा सकता था?
राष्ट्रीय हित सर्वोपरि पर कूटनीतिक संतुलन भी जरूरी
कूटनीति में संतुलन बनाना जरूरी होता है। राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होते हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियां भी होती हैं। भारत की छवि एक स्वतंत्र विदेश नीति वाले देश की रही है। SCO में यह फैसला उस छवि से मेल नहीं खाता। लगता है मोदी सरकार ने अमेरिकी दबाव में काम किया। या फिर पाकिस्तान को नाराज करने के डर से। दोनों ही स्थितियां चिंताजनक हैं।
निष्कर्ष
भारत का रुख निराशाजनक रहा। ईरान पर हमला एक गंभीर अंतरराष्ट्रीय घटना थी। IAEA की रिपोर्ट इसे और भी महत्वपूर्ण बनाती है। SCO के स्टेटमेंट में इसका होना जायज था। भारत को इसका समर्थन करना चाहिए था। पहलगाम और बलूचिस्तान के मुद्दे भी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन इन्हें अलग से भी उठाया जा सकता था। हस्ताक्षर न करके भारत ने एक बड़े सिद्धांत को कमजोर किया। साथ ही, यह सवाल खड़ा किया कि क्या भारत की विदेश नीति वास्तव में स्वतंत्र है?
भविष्य में ऐसे मौके फिर आएंगे। भारत को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। कूटनीति में दृढ़ता और लचीलेपन का संतुलन चाहिए। राष्ट्रीय हितों की रक्षा जरूरी है। लेकिन वैश्विक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना भी जरूरी है। ईरान पर हमले जैसे मामलों पर बहाना भारत की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकता है। मोदी सरकार को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए। जनता बेवकूफ नहीं है। वह हर कदम को समझती है।
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