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जातिगत जनगणना पर मोदी का यू-टर्न: राजनीतिक भूचाल?

मोदी का जातिगत जनगणना पर यू-टर्न

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जातिगत जनगणना को हरी झंडी दिखाना भाजपाआरएसएस के लिए ऐतिहासिक वैचारिक उलटफेर है। यह निर्णय न सिर्फ़ सामाजिक न्याय के प्रति विपक्षी दबाव का नतीजा है, बल्कि भारतीय राजनीति में जाति की अटूट प्रासंगिकता को भी रेखांकित करता है। आइए, इसके राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थों को समझें।

जातिगत जनगणना: आरएसएस-भाजपा का ऐतिहासिक विरोध क्यों?

  • हिंदुत्व की एकता की परिकल्पना: दशकों से आरएसएस और भाजपा ने जातिगत जनगणना का विरोध करते हुए “एक हिंदू समाज” के नैरेटिव को बढ़ावा दिया। उनका मानना था कि जाति-आधारित आंकड़े हिंदुओं को बांटेंगे।
  • सवर्ण वोट बैंक का डर: जातिगत जनगणना से ओबीसी समुदायों के राजनीतिक दावों को बल मिलने का खतरा था, जो सवर्णों के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है।
  • मंडल vs कमंडल की विरासत: 1990 में मंडल आयोग लागू होने के बाद भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन (कमंडल) के ज़रिए हिंदू एकता का नैरेटिव खड़ा किया था। जातिगत जनगणना इस रणनीति के विपरीत है।

2025 की राजनीति: मोदी क्यों बदला अपना रुख?

  1. विपक्षी दबाव का असर: राहुल गांधी की “जनगणना-जननायक” मुहिम और क्षेत्रीय दलों के सामाजिक न्याय के एजेंडे ने भाजपा को रक्षात्मक बना दिया।
  2. ओबीसी वोट की चिंता: उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में ओबीसी समूहों का समर्थन खिसकने का डर।
  3. डेटा पर कंट्रोल की रणनीति: सरकारी जनगणना करके भाजपा आंकड़ों की व्याख्या अपने हित में कर सकती है, जैसे “EBCs (अत्यंत पिछड़ा वर्ग)” की नई श्रेणी गढ़ना।

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हिंदुत्व विचारधारा vs ज़मीनी हकीकत

  • विचारधारा की हार? जातिगत जनगणना को स्वीकारना हिंदुत्व के “जाति-मुक्त समाज” के सपने पर पानी फेरने जैसा है।
  • आरएसएस की चुप्पी: संघ ने इस नीति पर सार्वजनिक तौर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन आंतरिक असहमति के संकेत मिले हैं।
  • सवर्णों में असंतोष: भाजपा के पारंपरिक समर्थक उच्च जातियों को लगता है कि यह कदम “रिजर्वेशन की लॉबी” को बढ़ावा देगा।

भविष्य की चुनौतियाँ: क्या यह रणनीति काम करेगी?

  • विपक्ष को मिलेगा बल? जातिगत जनगणना की मांग को भाजपा द्वारा अपनाने से विपक्षी दलों का सामाजिक न्याय का एजेंडा और मज़बूत हो सकता है।
  • आरक्षण बनाम विकास की बहस: भाजपा को अब ओबीसी वोट के साथ-साथ सवर्णों के बीच संतुलन बनाना होगा।
  • राज्यों पर दबाव: बिहार और तेलंगाना के बाद अन्य राज्य भी जातिगत आंकड़े जारी कर सकते हैं, जिससे केंद्र की नीतियों पर सवाल उठेंगे।

मोदी की मजबूरी या रणनीतिक स्ट्रोक

  • 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की 41% आबादी ओबीसी है, जो 50% से अधिक लोकसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाती है।
  • बिहार की जातिगत जनगणना (2023) के अनुसार, राज्य की 63% आबादी ओबीसी और EBC है, जिसने भाजपा को रणनीति बदलने पर मजबूर किया।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि जातिगत आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर जा सकती है, जो सर्वोच्च न्यायालय की मौजूदा व्यवस्था को चुनौती देगा।

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जाति की राजनीति का नया अध्याय

मोदी सरकार का यह यू-टर्न साबित करता है कि भारतीय लोकतंत्र में जातिगत जनगणना के बिना सामाजिक न्याय अधूरा है। हालाँकि, यह कदम भाजपा के लिए दोधारी तलवार साबित हो सकता है: एक तरफ़ ओबीसी वोटों का लालच, दूसरी ओर सवर्णों का रोष। 2024 के चुनावों में यह निर्णय किसे फ़ायदा पहुँचाएगा, यह वक्त ही बताएगा।

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