मनुस्मृति को 80% हिन्दू समाज नहीं मानता है मुख्य धार्मिक पुस्तक!

खबर है कि ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने सासंद और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पर बड़ा हमला बोला है. यहाँ तक कि उन्होंने राहुल गांधी को ‘मनुस्मृति को लेकर’ हिन्दू धर्म से बहिष्कार करते हुए कहा कि उन्हें हिन्दू धर्म का न माना जाए।
दरअसल, राहुल ने संसद में मनुस्मृति को लेकर एक बयान दिया था, जिस पर शंकराचार्य ने उनसे जवाब मांगा था. इसके लिए उन्होंने राहुल गांधी को एक पत्र भी लिखा था।
लेकिन 3 महीने बीत जाने के बाद भी उसका जवाब नहीं आया तो शंकराचार्य ने राहुल गांधी को हिन्दू धर्म से बहिष्कृत करने का ऐलान किया है।
लेकिन क्या ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद को नहीं पता है कि भारत का अधिसंख्य हिन्दू समाज मनुस्मृति को अपना मुख्य धार्मिक पुस्तक नहीं मानता।
खासतौर पर देखा जाय तो अधिसंख्य हिन्दू समाज मनुस्मृति को अपना मुख्य धार्मिक पुस्तक क्यों नहीं मानता आइये उसके कारणों पता लगाते हैं।
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1: श्रुति बनाम स्मृति की प्रमुखता
हिंदू परंपरा में वेद (श्रुति) को दिव्य स्रोत माना जाता है, क्योंकि मनुस्मृति स्मृति (यादृत) वर्ग का ग्रंथ है जो ऋषियों की बुद्धि पर आधारित है indiafacts.org.in। यानि स्मृतियाँ वेदों की व्याख्या मात्र हैं और स्वरूप में गौण मानी जाती हैं janataweekly.org।
अतः बहुसंख्यक हिंदू धर्मावलंबी मनुस्मृति को सर्वोच्च ग्रंथ न मानते हुए केवल वेद-उपनिषद आदि को ही उच्चतम मानते हैं।
2: जाति-व्यवस्था और सामाजिक असमानता
मनुस्मृति में वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन स्पष्ट है, जिसने ब्राह्मण श्रेष्ठता व अंत्यजाति निम्नता को औचित्यपूर्ण ठहराया britannica.com। चूँकि आधुनिक दृष्टि से यह समाज को अनेक असमान श्रेणियों में बांटनेवाला और अमानवीय संहिता माना जाता है।
इसलिए स्वतंत्र भारत में संविधान निर्माण के समय ‘जाति व्यवस्था’ को समाप्त करने का संकल्प लिया गया परिणामस्वरूप संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रूप से “जाति व्यवस्था एवं महिलाओं का अधीनता” सहित मनुस्मृति के अन्य कई सिद्धांतों को अस्वीकार किया indianexpress.com।
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3: नारी-विरोधी शिक्षाएँ
मनुस्मृति में महिलाओं की स्थिति को बहुत नीचे दिखाया गया है; उदाहरणार्थ इसके एक श्लोक में कहा गया है कि “स्त्री को स्वतंत्र जीवन के लिए कभी उचित नहीं माना गया” indianexpress.com। आधुनिक भारतीय संविधान महिलाओं को समान अधिकार देता है, परंतु मनुस्मृति उन्हें पिता, पति, पुत्र का पालनकर्ता बताती है।
इसलिए उच्च न्यायालय ने भी स्पष्ट कहा है कि मनुस्मृति को अधिकारों विशेषकर महिलाओं के अधिकारों की व्याख्या के लिए अपनाया नहीं जा सकता indianexpress.com।
4: ऐतिहासिक रूप से सीमित प्रासंगिकता
मनुस्मृति का आधुनिक रूप दूसरी शताब्दी ईस्वी (लगभग 100 ई.) में मान्यता प्राप्त है britannica.com। अन्य वैदिक ग्रंथों की अपेक्षा इसका इतिहास नई अवधारणा रहा है।
अंग्रेजों के आने पर सर विलियम जोन्स ने 1776 में मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद कराया और इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के हिंदू कानून संहिता के निर्माण में प्रयोग किया en.wikipedia.org।
लेकिन विद्वान रोमिला थापर के अनुसार मनुस्मृति जैसे धर्मशास्त्र प्राचीन काल में लिखित कानून नहीं, बल्कि सामाजिक-आचार संबंधी ग्रंथ थे en.wikipedia.org। इस तरह इसका महत्व मुख्य धार्मिक ग्रंथ की भाँति नहीं, बल्कि आधुनिकीकरण के दौरान ऐतिहासिक कारणों से बढ़ाया गया।
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5: ग्रंथ की विरोधाभासी प्रकृति
मनुस्मृति में एक के बाद एक कई अनर्गल और आपस में टकराते हुए नियम मिलते हैं। महात्मा गांधी ने भी कहा कि इसमें उच्च विचार तो हैं, पर बहुत विरोधाभास हैं और कोई भी इसकी मूल प्रति किसी के पास नहीं है en.wikipedia.org।
उन्होंने सुझाव दिया कि इसे संपूर्ण रूप से पढ़कर केवल सत्य व अहिंसा से मेल खाने वाले भाग स्वीकार किए जाएँ en.wikipedia.org। इस प्रकार मनुस्मृति को पूर्णत: आत्मसात करना न उचित समझा गया।
6: आधुनिक सुधारकों की तीव्र आलोचना
आधुनिक भारत के सामाजिक-राजनीतिक चिंतकों ने मनुस्मृति की कटु आलोचना की है। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने इसे वर्ण-आधारित उत्पीड़न का स्रोत बताया और 25 दिसम्बर 1927 को सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति का पुतला दहन किया en.wikipedia.org।
उन्होंने महाद सत्याग्रह में कहा कि शूद्रों को ‘पाखंडी’ बताने वाले यही धर्मग्रंथ हैं, जबकि संविधान सभी को समान मानता है janataweekly.org। इसी प्रकार गांधी ने वर्ण-व्यवस्था को अस्वीकार्य कहा और मनुस्मृति के कई प्रावधानों का खंडन किया en.wikipedia.org janataweekly.org।
इन आलोचनों से स्पष्ट होता है कि समाज सुधारकों ने इसे अपनाना उचित नहीं समझा।
7: भारतीय संविधान और न्यायपालिका का रुख
आज के लोकतांत्रिक संविधान में मनुस्मृति के कई सिद्धांतों की सीधे-सीधे जगह नहीं है। एक न्यायिक टिप्पणी में कहा गया है कि “मनुस्मृति के आदर्श संविधान के आदर्शों के विपरीत हैं और इसे अधिकारों की व्याख्या के लिए नहीं अपनाया जा सकता” indianexpress.com।
संविधान ने सभी नागरिकों को समानता दी है और जाति तथा लैंगिक भेदभाव को खत्म किया है indianexpress.com। अतः संवैधानिक और न्यायिक दृष्टि से मनुस्मृति अप्रासंगिक घोषित है।
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8: शताब्दीगत सापेक्षता की कमी
मनुस्मृति का समयबद्ध संदर्भ भी उसकी प्रासंगिकता में कमी लाता है। यह ग्रंथ दूसरी सदी ईस्वी के आसपास संकलित माना जाता है britannica.com, जबकि वैदिक ज्ञान और आध्यात्मिक शिक्षाएँ उससे पहले ही प्रकट हो चुकी थीं।
आधुनिक समय में समाज की मांगें और नैतिक मानक पहले की तुलना में बहुत बदल गए हैं। इसलिए जो विधान 2000 साल पुराना है, उसे आज की सामाजिक और धार्मिक जीवन-व्यवस्था के अनुरूप नहीं माना जाता।
9: सीमित दायरा और व्यापक अनुप्रयोग में अभाव
कुछ विद्वानों ने दिखाया है कि मनुस्मृति का दायरा संकीर्ण था एवं इसे गैर-वैदिक भारतीयों पर लागू मानना ही नहीं था timesofindia.indiatimes.com।
अर्थात् यह संपूर्ण समाज को निर्देश देने वाला सार्वभौमिक धर्मग्रंथ नहीं, बल्कि एक विशिष्ट परंपरा का आचार-नियम था।
लोक धार्मिक जीवन में गीता, रामायण आदि ग्रंथों की प्रधानता होती रही, जबकि मनुस्मृति का पाठ या अनुपालन व्यापक रूप से नहीं देखा गया।
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10: समकालीन सोच के साथ असंगति
आज के समय में मनुस्मृति के कई सिद्धांत आधुनिक मूल्यों व मानवाधिकारों के अनुकूल नहीं हैं। उदाहरणार्थ इसमें वर्ण-समूहों को जन्म से श्रेणियों में बांटा गया है और व्यक्तियों को स्वतंत्र व्यवहार से रोकने वाली शिक्षाएँ हैं।
स्वतंत्र भारत ने समानता, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के मूल्यों को अपनाया है, जो मनुस्मृति के वर्णित आदर्शों से पूर्णतः भिन्न हैं indianexpress.com indianexpress.com।
कुल मिलाकर इस परिवर्तनशील सामाजिक-विचारधारा में मनुस्मृति को हिन्दू समाज का मुख्य धार्मिक पुस्तक मानने का कोई ठोस आधार नहीं है।
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