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मातृपक्ष आधारित प्रमाण पत्र पर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी सुनवाई 22 जुलाई को

मातृपक्ष आधारित प्रमाण पत्र

एकल माताओं के बच्चों को मातृपक्ष आधारित प्रमाण पत्र देने की मांग अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है। इस संवेदनशील मुद्दे पर अदालत ने 23 जून 2025 को सुनवाई करते हुए दिशा-निर्देशों की समीक्षा की बात कही है। मुद्दा ये है कि अगर मां ओबीसी वर्ग से है, तो बच्चे को सर्टिफिकेट देने में पिता की गैर मौजूदगी बाधा क्यों बने? याचिकाकर्ता का कहना है कि मौजूदा सिस्टम न केवल भेदभावपूर्ण है, बल्कि महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का हनन भी है। अब देखना होगा कि अदालत इस सामाजिक और संवैधानिक चुनौती पर क्या ऐतिहासिक निर्णय देती है।

दिल्ली की महिला ने उठाया मुद्दा

दिल्ली निवासी संतोष कुमारी ने याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया कि अगर मां ओबीसी वर्ग की है और पिता अनुपस्थित हैं या बच्चे की परवरिश में शामिल नहीं हैं, तब भी ओबीसी प्रमाण पत्र के लिए पिता या पैतृक रिश्तेदार का प्रमाण पत्र अनिवार्य किया जाता है। यह मौजूदा व्यवस्था एकल माताओं और उनके बच्चों के लिए अत्यंत भेदभावपूर्ण है।

मुख्य बिंदु :

  1. सुप्रीम कोर्ट ने एकल माताओं के बच्चों को ओबीसी अधिकार पर सुनवाई शुरू की।
  2. याचिका में केवल मातृपक्ष के आधार पर जाति प्रमाण पत्र की मांग की गई।
  3. मौजूदा नियम पिता या दादा के प्रमाण पत्र को ही मान्यता देते हैं।
  4. कोर्ट ने 2012 के SC/ST फैसले का हवाला देकर समान दिशा-निर्देशों की बात कही।
  5. अंतरजातीय विवाह के मामलों को भी नीति में शामिल करने पर जोर दिया गया।
  6. सामाजिक असमानता और जेंडर न्याय से जुड़ा गंभीर संवैधानिक प्रश्न सामने आया।
  7. अंतिम सुनवाई 22 जुलाई को, सभी राज्य सरकारें पक्षकार बनने को स्वतंत्र हैं।

केस का नाम:

संतोष कुमारी बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार एवं अन्य (W.P.(C) 55/2025)

याचिका के मुख्य बिंदु :

  • याचिकाकर्ता ने कहा कि जाति प्रमाण पत्र केवल मातृपक्ष के आधार पर भी दिया जाना चाहिए।
  • दिल्ली सरकार के नियमों में पिता, दादा या चाचा के प्रमाण पत्र को अनिवार्य माना गया है।
  • याचिका में कहा गया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है।
  • अदालत ने माना कि यह विषय “गंभीर और विचारणीय” है और इस पर अंतिम सुनवाई होनी चाहिए।

कोर्ट की टिप्पणी और पिछला संदर्भ

2012 के फैसले का हवाला :

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 2012 के रमेशभाई दाभाई नायक बनाम गुजरात राज्य केस का हवाला दिया, जिसमें एकल माता-पिता और जाति स्थिति से जुड़े पहलुओं पर विचार किया गया था। इस फैसले में एससी/एसटी की एकल माताओं के बच्चों की जाति की स्थिति पर मार्गदर्शन दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि इस संदर्भ में समान दिशा-निर्देश बनाए जाने की आवश्यकता है।

न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन और एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने टिप्पणी की:

“अगर मां ओबीसी श्रेणी से है तो बच्चे को प्रमाण पत्र पाने से वंचित नहीं किया जा सकता।”

अगली सुनवाई 22 जुलाई को

कोर्ट ने इस मामले को 22 जुलाई 2025 को अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया है और सभी राज्य सरकारों को पक्षकार बनाने की अनुमति दी है। केंद्र सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल संजय जैन ने भी दिशानिर्देशों की आवश्यकता को स्वीकार किया।

क्या कहती है कानूनी और सामाजिक पृष्ठभूमि?

भारत में जाति आधारित आरक्षण और प्रमाण पत्रों की प्रणाली हमेशा से विवाद का विषय रही है। मातृपक्ष आधारित प्रमाण पत्र पर ऐसा कोई स्पष्ट कानून नहीं है जो मातृपक्ष के आधार पर बच्चों को प्रमाण पत्र की गारंटी दे।

  • एससी/एसटी मामलों में पहले ही मातृ जाति के आधार पर प्रमाण पत्र जारी किए जा चुके हैं।
  • ओबीसी मामलों में अभी तक केवल पितृपक्ष पर ही जोर रहा है।

सामाजिक प्रभाव और जेंडर असमानता

यह मुद्दा सिर्फ जाति प्रमाण पत्र का नहीं, बल्कि जेंडर जस्टिस का भी है। एकल माताओं के बच्चों को ओबीसी प्रमाण पत्र से वंचित रखना न केवल सामाजिक असमानता को बढ़ाता है बल्कि महिला अधिकारों को भी कमजोर करता है।

  • समाज में एकल माताओं की संख्या बढ़ रही है।
  • बच्चे शिक्षा, छात्रवृत्ति, और नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं ले पाते।

कोर्ट के संकेत और संभावित निष्कर्ष

  • अंतरजातीय विवाह के मामलों को भी इस नीति में शामिल करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
  • सुप्रीम कोर्ट ने समान और स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाने की बात कही है, जिससे सभी राज्यों में एक समान नीति लागू हो सके।

क्या बदलेगा आने वाले समय में?

यदि सुप्रीम कोर्ट मातृपक्ष आधारित प्रमाण पत्र को मान्यता देता है, तो यह न केवल नीतिगत बदलाव लाएगा, बल्कि हजारों एकल माता-पिता और उनके बच्चों के जीवन में क्रांतिकारी सुधार ला सकता है।

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