मोदी राज में श्रम कानूनों की स्थिति: श्रमिकों पर पड़ने वाले प्रभाव!

नए श्रम सुधारों का विवादास्पद सफर:
मोदी राज में श्रम कानूनों की स्थिति की अगर बात करें तो 2014 के बाद से, मोदी सरकार ने श्रम क्षेत्र में “सुधार” के नाम पर जो बदलाव किए हैं।
वे गहन बहस का विषय बने हुए हैं। 29 पुराने कानूनों को 4 नई श्रम संहिताओं में समेटने का दावा करने वाली यह पहल, श्रमिक अधिकारों के संरक्षण और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाने का प्रयास है।
लेकिन क्या यह संतुलन वास्तव में श्रमिकों के पक्ष में है? इस लेख में, हम नए श्रम कानूनों के उन पहलुओं को उजागर करेंगे, जिन्होंने श्रमिक समुदाय को चिंतित और विरोध के लिए मजबूर किया है।
चार नई श्रम संहिताएं:
- वेतन संहिता, 2019 (Code on Wages, 2019)
- औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 (Industrial Relations Code, 2020)
- सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 (Code on Social Security, 2020)
- व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता, 2020 (Occupational Safety, Health and Working Conditions Code, 2020)
1. चार श्रम संहिताएँ: क्या बदला, क्या नहीं?
1.1 वेतन संहिता, 2019: सतही सुधार, गहरे सवाल
वेतन संहिता ने न्यूनतम वेतन को सार्वभौमिक बनाने का वादा किया है, लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र के करोड़ों श्रमिकों तक इसकी पहुँच अभी भी संदिग्ध है। सरकार का दावा है कि मजदूरी का 50% हिस्सा “मूल वेतन” होगा, परंतु महंगाई भत्ता (DA) और अन्य भत्तों में कटौती की आशंका से श्रमिकों की वास्तविक आय प्रभावित हो सकती है।
1.2 औद्योगिक संबंध संहिता, 2020: छंटनी का ‘कानूनी हथियार’
इस संहिता ने छंटनी के लिए सरकारी अनुमति की आवश्यकता वाले प्रतिष्ठानों की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 श्रमिक कर दी है। इसका सीधा मतलब है कि छोटे और मझोले उद्योग अब बिना किसी रोक-टोक के श्रमिकों की नौकरियाँ खत्म कर सकते हैं। साथ ही, “निश्चित अवधि के रोजगार” का प्रावधान श्रमिकों को स्थायी नौकरियों से वंचित करके उन्हें असुरक्षित बना रहा है।
1.3 सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020: खोखले वादे?
गिग वर्कर्स और अनौपचारिक श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने का दावा करने वाली यह संहिता, फंडिंग और कार्यान्वयन के बिना अधूरी है। उदाहरण के लिए, प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लिए स्वास्थ्य बीमा या पेंशन की कोई ठोस योजना नहीं दिखती।
1.4 कार्य सुरक्षा संहिता, 2020: 12 घंटे की मजदूरी, पर किस कीमत पर?
12 घंटे के कार्यदिवस का विकल्प देकर सरकार ने कंपनियों को श्रमिकों का शोषण करने का रास्ता साफ किया है। हालाँकि सप्ताह में 48 घंटे का समय सीमित रखा गया है, लेकिन ओवरटाइम के बिना लंबी शिफ्ट्स श्रमिकों के स्वास्थ्य पर गंभीर दुष्प्रभाव डाल सकती हैं।
इसे भी पढ़ें: जातिगत जनगणना पर मोदी का यू-टर्न: राजनीतिक भूचाल?
2. मोदी राज में श्रम कानूनों की स्थिति: कार्यान्वयन की अनिश्चितता और श्रमिकों पर संकट
2025 तक इन संहिताओं को लागू करने की योजना है, लेकिन राज्यों और केंद्र के बीच तालमेल की कमी इसे धीमा कर रही है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों ने इन कानूनों का विरोध किया है, जबकि गुजरात और उत्तर प्रदेश ने इन्हें जल्दबाजी में लागू करना शुरू कर दिया है। श्रमिकों के लिए यह असमान कार्यान्वयन भ्रम और अधिकारों के हनन का कारण बन रहा है।
मोदी राज में श्रम कानूनों की स्थिति पर विवाद तब गहराया जब 2023 में संसदीय समिति ने स्वीकार किया कि 94% भारतीय श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं, और नई संहिताएँ उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल हैं।
3. व्यवसायों को लाभ, श्रमिकों को चुनौती: एक असमान समीकरण
3.1 कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता
नए कानूनों ने व्यवसायों के लिए अनुपालन को सरल बनाया है, लेकिन इसकी कीमत श्रमिकों ने चुकाई है। उदाहरण के लिए, “सिंगल रजिस्ट्रेशन” से कंपनियों का समय बचा है, लेकिन श्रमिकों के पास शिकायत दर्ज कराने के लिए अब कोई स्थानीय मंच नहीं बचा है।
3.2 रोजगार की अनिश्चितता
निश्चित अवधि के अनुबंधों ने युवाओं को रोजगार के अवसर तो दिए हैं, लेकिन बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के। ऐसे में, बीमारी या आर्थिक मंदी की स्थिति में श्रमिकों के पास कोई सहारा नहीं होगा।
इसे भी पढ़ें: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को GANHRI का ऐतिहासिक झटका!
4. श्रमिक दृष्टिकोण: लाभ या भ्रम?
सरकार का दावा है कि नए कानूनों से 50 करोड़ अनौपचारिक श्रमिकों को लाभ मिलेगा, लेकिन जमीनी स्तर पर:
- केवल 10% श्रमिक ही सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जुड़ पाए हैं।
- न्यूनतम वेतन का निर्धारण अभी भी राज्यों की मनमर्जी पर निर्भर है।
- महिला श्रमिकों के लिए समान वेतन का प्रावधान केवल कागजों तक सीमित है।
5. ट्रेड यूनियनों का आक्रोश: राष्ट्रव्यापी हड़तालें और विरोध
20 मई 2025 के राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल का आह्वान करते हुए ट्रेड यूनियनों ने इन संहिताओं को “श्रमिक-विरोधी षड्यंत्र” बताया। पिछले दो वर्षों में, देशभर में 500 से अधिक विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:
- कर्नाटक में ऑटो श्रमिकों का 10-दिवसीय धरना (अप्रैल 2025)
- दिल्ली में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का मार्च (मार्च 2025)
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का हस्तक्षेप, जिसने भारत से इन कानूनों की समीक्षा करने को कहा।
6. क्षेत्रीय प्रभाव: कौन-से राज्य सबसे अधिक प्रभावित?
- महाराष्ट्र और गुजरात: यहाँ के औद्योगिक क्षेत्रों में छंटनी की दर 2024 में 22% बढ़ी।
- बिहार और उत्तर प्रदेश: प्रवासी मजदूरों को कार्य स्थल पर दुर्घटना की स्थिति में मुआवजा पाने में अब भी कठिनाई।
- दक्षिणी राज्य: केरल और तमिलनाडु सरकारों ने केंद्रीय संहिताओं के स्थान पर अपने कानून बनाने शुरू किए हैं।
इसे भी पढ़ें: पहलगाम आतंकी हमला विशेषसत्र बुलाने का खड़गे ने किया आग्रह
7. अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया: भारत की छवि धूमिल?
वैश्विक मंचों पर भारत के नए श्रम कानूनों की कड़ी आलोचना हुई है:
- यूरोपीय संघ ने अपनी व्यापार रिपोर्ट में भारत को “श्रमिक अधिकारों के मामले में पिछड़ा” बताया।
- एमनेस्टी इंटरनेशनल ने चेतावनी दी कि ये कानून मजदूर संघों को कमजोर करते हैं।
8. भविष्य की राह: क्या संभव है समाधान?
- राज्य स्तर पर सुधार: श्रमिक हितों को प्राथमिकता देने वाले नियम बनाने की आवश्यकता।
- ट्रायपार्टाइट वार्ता: सरकार, उद्योग और श्रमिक नेताओं के बीच संवाद का अभाव है।
- डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का उपयोग: शिकायत निवारण और लाभ वितरण के लिए ऐप-आधारित प्रणाली विकसित करना।
निष्कर्ष: सुधार या पतन?
मोदी सरकार के श्रम सुधारों ने भारत के श्रम बाजार को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। हालाँकि, इनका वास्तविक परीक्षण तब होगा जब यह तय होगा कि ये संहिताएँ 500 मिलियन श्रमिकों के जीवन स्तर में सुधार करती हैं या उन्हें कॉर्पोरेट शोषण के लिए छोड़ देती हैं। अभी तक के संकेत चिंताजनक हैं, और सरकार को श्रमिक संगठनों की आवाज़ गंभीरता से सुननी होगी।
Post Comment