कुलपति नियुक्ति अधिकार पर मद्रास हाईकोर्ट ने लगाई अंतरिम रोक

तमिलनाडु सरकार को झटका उच्च न्यायालय ने कुलपति नियुक्ति अधिनियम पर लगाई अंतरिम रोक
तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार को मद्रास हाईकोर्ट से बड़ा झटका लगा है। कुलपति नियुक्ति पर हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में उस संशोधन पर रोक लगा दी है, जिसके तहत राज्य सरकार को विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त करने का अधिकार दिया गया था। अदालत के इस निर्णय ने राज्य सरकार के उन विधायी प्रयासों पर ब्रेक लगा दिया, जिनका मकसद राज्यपाल की भूमिका को सीमित करते हुए मुख्यमंत्री को कुलपति नियुक्त करने का अधिकार देना था।
क्या है मामला ?
- भाजपा पदाधिकारी वकील के. वेंकटचलपति ने इसके खिलाफ जनहित याचिका दायर की थी।
- राज्य सरकार ने हाल ही में विधेयकों के ज़रिए कुलपति नियुक्ति का अधिकार मुख्यमंत्री को सौंपा।
- ये संशोधन राज्यपाल की स्वीकृति के बिना ही लागू किए गए थे।
सुप्रीम कोर्ट की जीत के बाद हाईकोर्ट की रोक :
- 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि की आलोचना की थी।
- कोर्ट ने कहा था कि 10 विधेयकों पर मंजूरी रोकना असंवैधानिक था, क्योंकि वे दो बार विधानसभा से पारित हो चुके थे।
- इनमें कुछ विधेयक राज्यपाल के कुलपति नियुक्ति अधिकार को सीमित करते थे।
इसके बावजूद, मद्रास हाईकोर्ट ने बुधवार को उन प्रावधानों को लागू करने पर अस्थायी रोक लगाते हुए कहा कि इनका प्रभाव विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर पड़ सकता है। यह आदेश ऐसे समय आया है जब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस विषय पर कानूनी जीत हासिल की थी।
हाईकोर्ट की खंडपीठ का आदेश :
न्यायमूर्ति जीआर स्वामीनाथन और वी लक्ष्मी नारायणन की खंडपीठ ने यह अंतरिम आदेश दिया। सरकार की इस मांग को अदालत ने खारिज कर दिया कि सुनवाई को शुक्रवार तक टाल दिया जाए। कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित होने के बावजूद अंतरिम राहत दी जा सकती है।
कोर्ट के प्रमुख बिंदु :
- संशोधन यूजीसी एक्ट और उसके नियमों का उल्लंघन करते हैं।
- नियुक्तियों में पारदर्शिता नहीं है, जिससे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता प्रभावित हो रही है।
- कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकार दोनों से विस्तृत जवाब मांगा है।
बीजेपी पदाधिकारी की जनहित याचिका बनी कारण :
- भाजपा के वरिष्ठ सदस्य ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की।
- उनका आरोप था कि राज्य सरकार द्वारा लाए गए नए अधिनियम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के मानकों का उल्लंघन करते हैं।
- याचिकाकर्ता ने कहा कि यूजीसी अधिनियम के तहत कुलपति की नियुक्ति में खोज-सह-चयन समिति में यूजीसी का प्रतिनिधि होना चाहिए।
याचिकाकर्ता की दलीलें :
वरिष्ठ अधिवक्ता दामा शेषाद्रि नायडू ने याचिकाकर्ता की ओर से पक्ष रखते हुए कहा कि शिक्षा क्षेत्र को राजनीतिक प्रभाव से बचाना ज़रूरी है। नियुक्ति जैसे फैसले स्वतंत्र प्राधिकरण के माध्यम से होने चाहिए।
याचिकाकर्ता की आपत्तियाँ :
- यूजीसी नियमों की अवहेलना की गई है।
- संशोधन में निष्पक्ष प्रक्रिया का अभाव है।
- राज्यपाल की भूमिका को हटाकर संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ की गई।
राज्य सरकार का पक्ष :
राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने दलील दी कि संशोधन पूरी तरह वैध हैं। उन्होंने कहा कि यूजीसी नियम यह अनिवार्य नहीं करते कि राज्यपाल ही कुलाधिपति हों।
DMK सरकार की दलीलें :
- संशोधन संविधान के दायरे में हैं।
- कुलपति की नियुक्ति पर पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई गई है।
- याचिकाकर्ता ने फर्जी दस्तावेज़ प्रस्तुत किए हैं, जिसकी जांच होनी चाहिए।
राज्य सरकार का पक्ष और विरोध :
- डीएमके सरकार ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि राज्य विश्वविद्यालय अपने विधायी अधिकारों के तहत चलते हैं।
- सरकार ने यह भी दलील दी कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही समान प्रकृति के मामलों की सुनवाई कर रही है, इसलिए यह मामला वहीं पर जोड़ा जाना चाहिए।
- सरकार ने जवाब देने के लिए समय की मांग की, लेकिन हाईकोर्ट ने तत्काल अंतरिम रोक लगा दी।
राज्यपाल बनाम सरकार की टकराव की नई कड़ी :
यह विवाद राज्य सरकार और राज्यपाल आरएन रवि के बीच जारी खींचतान की एक और कड़ी बन गया है। इससे पहले भी राज्यपाल ने इन विधेयकों को स्वीकृति देने से इनकार किया था। उनका कहना था कि यह संघीय ढांचे को कमज़ोर करता है।
राजनीतिक पृष्ठभूमि :
- राज्यपाल आरएन रवि ने विधेयकों पर आपत्ति जताई थी।
- संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत इन्हें “स्वीकृत माना गया” घोषित कर दिया गया।
- सरकार ने “कुलाधिपति” शब्द हटाकर “सरकार” शब्द जोड़ा।
राज्यपाल बनाम मुख्यमंत्री की भूमिका पर टकराव :
- संशोधनों में “कुलाधिपति” की जगह “सरकार” शब्द लाया गया था, जिससे नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल से मुख्यमंत्री को स्थानांतरित हो गया।
- राज्यपाल आरएन रवि पहले ही इन संशोधनों पर आपत्ति दर्ज करवा चुके हैं।
- उन्होंने कहा था कि यह संघीय ढांचे और संवैधानिक परंपराओं के विरुद्ध है।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय और उसका असर :
- न्यायमूर्ति एसबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा था कि यदि कोई राज्यपाल विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजे बिना लंबित रखता है तो यह असंवैधानिक होगा।
- अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि दोबारा पारित विधेयकों को उसी तारीख से मंजूरी मिली मानी जाएगी जिस दिन वे फिर से विधानसभा में लाए गए थे।
- इस फैसले के बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और भाजपा नेताओं ने इसे न्यायपालिका द्वारा विधायिका के क्षेत्र में अतिक्रमण बताया था।
आगे की सुनवाई पर सबकी निगाहें
- मद्रास उच्च न्यायालय ने इस संवेदनशील मुद्दे पर राज्य सरकार और केंद्र सरकार से विस्तृत स्पष्टीकरण मांगा है।
- अब यह विवाद केवल नियुक्तियों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता और प्रशासनिक अधिकारों की लड़ाई में तब्दील हो गया है।
- यह संघर्ष विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता बनाम राजनीतिक दखल के सवाल को भी उठाता है, जो व्यापक संवैधानिक महत्व रखता है।
सुप्रीम कोर्ट में संभावित समेकन की तैयारी
- सुप्रीम कोर्ट विचार कर रहा है कि इस याचिका को समान प्रकृति की अन्य लंबित याचिकाओं के साथ जोड़ा जाए या नहीं।
- यदि ऐसा होता है, तो उच्चतम न्यायालय इस पूरे विवाद पर एक समग्र दृष्टिकोण से फैसला सुना सकता है।
अगली सुनवाई की तैयारी
- मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु सरकार और केंद्र से विस्तृत शपथ-पत्र के माध्यम से जवाब माँगा है।
- अदालत ने यह सुनिश्चित करने को कहा है कि सभी पक्ष कानूनी और शैक्षणिक दृष्टिकोण से अपना पक्ष स्पष्ट करें।
- इस मामले की अगली सुनवाई अगले सप्ताह तय की गई है, जो पूरे प्रकरण की दिशा तय कर सकती है।
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