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सुल्ताना बेगम: कोलकाता की झुग्गियों में जीवन जी रहीं मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की परपोती

मुगल साम्राज्य की विरासत और सुल्ताना बेगम की दुखद कहानी

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एक समय के विशाल मुगल साम्राज्य की गौरवशाली विरासत की वारिस सुल्ताना बेगम आज कोलकाता के हावड़ा इलाके की झुग्गी में दो कमरों की झोपड़ी में रहती हैं। 60 वर्षीय सुल्ताना का जीवन उनके पूर्वजों की शाही ऐश्वर्य के बिल्कुल विपरीत है। पड़ोसियों के साथ रसोई साझा करना, सार्वजनिक नल पर पानी भरना, और ₹6,000 की मासिक पेंशन पर गुज़ारा करना—यह सब मुगल वंशजों की उपेक्षा और ऐतिहासिक विरासत के बिखराव की मार्मिक गवाही है।

सुल्ताना की कहानी न सिर्फ़ 1857 के विद्रोह के बाद मुगल परिवार के पतन को दर्शाती है, बल्कि यह सवाल भी उठाती है: “क्या भारत अपने इतिहास के वारिसों को भूल गया है?”

बहादुर शाह जफर: अंतिम मुगल सम्राट जिनकी विरासत धूमिल हुई

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बहादुर शाह जफर, जिन्हें 1837 में मुगल साम्राज्य का अंतिम सम्राट घोषित किया गया, उस समय तक सत्ता केवल नाममात्र की रह गई थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उन्हें प्रतीकात्मक नेता बनाया गया, लेकिन विद्रोह की विफलता के बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें रंगून (म्यांमार) निर्वासित कर दिया, जहाँ 1862 में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी शायरी और संघर्ष ने उन्हें जनता का हीरो बनाया, लेकिन उनके वंशजों को न तो संपत्ति मिली और न ही सम्मान।

ब्रिटिशों ने मुगलों की शक्ति को पूरी तरह खत्म कर दिया, और आज सुल्ताना बेगम की दुर्दशा उसी ऐतिहासिक अन्याय की निशानी है।

महलों से झोपड़ियों तक: सुल्ताना बेगम का संघर्षमय जीवन

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1980 में पति प्रिंस मिर्ज़ा बेदार बख़्त की मृत्यु के बाद सुल्ताना का जीवन पूरी तरह बदल गया। छह बच्चों की विधवा माँ आज अपनी अविवाहित बेटी मधु बेगम के साथ संघर्ष कर रही हैं। उनकी मुश्किलें:

* आर्थिक तंगी: महीने की ₹6,000 पेंशन में दवा, खाना और किराया चलाना।

* स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव: बुजुर्गावस्था में बीमारियों से जूझना।

* सामाजिक उपेक्षा: शाही खून होने के बावजूद गुमनामी में जीना।

सुल्ताना ने सरकार से मदद के लिए कई बार गुहार लगाई, लेकिन उनकी आवाज़ अनसुनी रही।

सरकारी उपेक्षा: मुगल वंशजों को क्यों भुला दिया गया?

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1947 के बाद देशी रियासतों को प्रिवी पर्स (राजभत्ता) दिया गया, लेकिन मुगल परिवार इससे वंचित रहा। विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार की यह नीति ऐतिहासिक विरासत को मिटाने जैसा है। मुख्य समस्याएँ:

* मान्यता का अभाव: मुगल वंशजों को आधिकारिक दर्जा नहीं।

* अपर्याप्त कल्याण योजनाएँ: दशकों से पेंशन की रकम नहीं बढ़ी।

* सांस्कृतिक विस्मृति: औपनिवेशिक इतिहास को प्राथमिकता, स्वदेशी विरासत को भुलाना।

मानवाधिकार संगठन अब सुल्ताना जैसे लोगों के लिए नीतिगत बदलाव की मांग कर रहे हैं।

एनजीओ और समाजसेवियों ने उठाई मदद की आवाज़

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* सरकारी मदद न मिलने पर, एनजीओ और कार्यकर्ताओं ने सुल्ताना की उम्मीद बनाई है:

* आर्थिक सहयोग: मेडिकल खर्च और घर के लिए क्राउडफंडिंग।

* जागरूकता अभियान: डॉक्यूमेंट्री और सोशल मीडिया के ज़रिए उनकी कहानी उजागर करना।

* कानूनी लड़ाई: सरकार से मुगल वंशजों को मान्यता देने की मांग।

सुल्ताना कहती हैं, “मुझे अपने खून पर गर्व है, पर गर्व से पेट नहीं भरता।” उनकी ज़िंदगी आज भारत की बिखरी विरासत को जोड़ने का प्रतीक बन गई है।

निष्कर्ष: इतिहास के वारिसों को बचाने की ज़रूरत

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सुल्ताना बेगम की कहानी भारत के अधूरे इतिहासबोध को दर्शाती है। आधुनिकता की दौड़ में, हमें अपनी विरासत के प्रति संवेदनशील होना होगा। चाहे पेंशन बढ़ाकर, विरासत अनुदान देकर, या सांस्कृतिक मान्यता देकर—सुल्ताना जैसे लोगों को सम्मान देना इतिहास को जीवित रखने जैसा है।

धन्यवाद 

राजेश सिंह 

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