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भारत में मानवाधिकार सुरक्षा: निर्वासन पर विवाद गहराया

मानवाधिकार सुरक्षा

असम निर्वासन: मानवाधिकार सुरक्षा पर सवाल?

भारत में मानवाधिकार सुरक्षा के सिद्धांतों पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। असम से बांग्लादेश को लोगों के जबरन निर्वासन ने विवाद खड़ा कर दिया है। कार्यकर्ता और शिक्षाविद सरकार की कार्रवाई की कड़ी निंदा कर रहे हैं। उनका आरोप है कि यह कदम संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सुरक्षा मानदंडों के खिलाफ है।

एक सार्वजनिक बयान में 125 से अधिक हस्ताक्षरकर्ताओं ने तत्काल निर्वासन रोकने की मांग की है। उन्होंने पहले ही निर्वासित लोगों की वापसी की भी मांग की है। यह घटना भारत की मानवाधिकार सुरक्षा प्रतिबद्धता पर गहरा धब्बा है।

संवैधानिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन

हस्ताक्षरकर्ताओं ने स्पष्ट किया कि ये निर्वासन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का घोर उल्लंघन हैं। यह अनुच्छेद सभी व्यक्तियों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यह अधिकार सिर्फ नागरिकों तक सीमित नहीं है। निर्वासन से पहले सुनवाई न देना अनुच्छेद 14 की गारंटी का भी उल्लंघन है। अनुच्छेद 14 समानता और विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का अधिकार सुनिश्चित करता है। इस प्रकार, मानवाधिकार सुरक्षा का मूलभूत ढांचा कमजोर हुआ है।

चिंताजनक निर्वासन के मामले

कई मामले विशेष रूप से चिंताजनक हैं। खैरुल इस्लाम नामक एक सरकारी स्कूल शिक्षक को निर्वासित कर दिया गया। हैरानी की बात यह है कि उनका मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित था। उनकी ‘विदेशी’ की पहचान को चुनौती दी जा रही थी। एक अन्य मामला मणिकजान बेगम का है। उन्हें उनके महज 8 महीने के बच्चे के साथ बांग्लादेश भेज दिया गया। सबसे ज्यादा आक्रोश मोनोवारा बेवा के मामले में है।

सुप्रीम कोर्ट में उनकी अपील लंबित थी। फिर भी उन्हें देश से निकाल दिया गया। यह सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की सीधी अवहेलना प्रतीत होती है। इन सभी घटनाओं ने मानवाधिकार सुरक्षा के प्रति सरकारी रवैये पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

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दक्षिणपंथी सरकारों और मानवाधिकार सुरक्षा का इतिहास

भारत में मानवाधिकार सुरक्षा के मुद्दे नए नहीं हैं। पिछले कुछ दशकों में कई दक्षिणपंथी राज्य सरकारों के कार्यकाल में चिंताएं रही हैं। गुजरात 2002 के दंगों के दौरान अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा पर बड़े सवाल उठे थे। मानवाधिकार समूहों ने प्रशासनिक लापरवाही और पीड़ितों को न्याय दिलाने में देरी की आलोचना की थी। उत्तर प्रदेश में पुलिस एनकाउंटरों की संख्या में वृद्धि को लेकर भी चिंताएं व्यक्त की गईं। कार्यकर्ताओं का आरोप था कि कई मामलों में न्यायिक प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ।

मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (AFSPA) के तहत कथित अत्याचारों ने लंबे समय तक मानवाधिकार सुरक्षा पर बहस छेड़ी। कश्मीर घाटी में संचार प्रतिबंधों और व्यापक गिरफ्तारियों को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार सुरक्षा के उल्लंघन के रूप में देखा गया। इन घटनाओं ने भारत की वैश्विक मानवाधिकार छवि को प्रभावित किया है।

सुरक्षा जोखिम और हिरासत की स्थितियां

जबरन निर्वासन से जुड़े गंभीर सुरक्षा जोखिम भी हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा को दुनिया की सबसे खतरनाक सीमाओं में गिना जाता है। वापस भेजे गए लोगों को बांग्लादेशी सीमा बलों द्वारा गोलीबारी या हिरासत का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा, निर्वासन से पहले लोगों को असम के गोलपारा स्थित मटिया ट्रांजिट कैंप में रखा जाता है। आलोचक इसे एक हिरासत केंद्र बताते हैं। उनका दावा है कि यहां उचित प्रक्रिया और मानवीय सम्मान नियमित रूप से नकारा जाता है। ये स्थितियां मानवाधिकार सुरक्षा के मानकों के स्पष्ट विरोध में हैं।

 

कार्यकर्ताओं की मांगें और भविष्य

हस्ताक्षरकर्ताओं ने स्पष्ट मांगें रखी हैं। सबसे पहले, सभी तरह के जबरन निर्वासन तुरंत बंद होने चाहिए। दूसरा, पहले से निर्वासित व्यक्तियों को वापस लाया जाना चाहिए। तीसरा, मटिया कैंप में बंद लोगों को तत्काल रिहा किया जाए। चौथा, सभी प्रभावितों को कानूनी सहायता सुनिश्चित की जाए। पांचवां, उन लोगों की गिरफ्तारी रोकी जाए जिन्हें ‘विदेशी’ घोषित किया गया है। यह तब तक होना चाहिए जब तक बांग्लादेशी अधिकारी उनकी नागरिकता सत्यापित न कर दें। बयान में इसे सिर्फ कानूनी विफलता नहीं, बल्कि एक गंभीर मानवीय संकट बताया गया है। यह भारत के संवैधानिक लोकतंत्र की बुनियाद पर हमला है। मानवाधिकार सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देना अनिवार्य है।

असम से जबरन निर्वासन का मामला गहरी चिंता पैदा करता है। यह न्यायिक प्रक्रिया और मानवाधिकार सुरक्षा के सिद्धांतों के प्रति गंभीर चुनौती है। खैरुल इस्लाम, मणिकजान बेगम और मोनोवारा बेवा जैसे मामले दुखद उदाहरण हैं।

पिछले अनुभव बताते हैं कि मानवाधिकार सुरक्षा में ढील खतरनाक हो सकती है। कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और वकीलों का यह संयुक्त आवाज उठाना महत्वपूर्ण है। उनकी मांगें सरल और स्पष्ट हैं: कानून का शासन बहाल करो, मानवीय गरिमा का सम्मान करो, और भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत मानवाधिकार सुरक्षा को सुनिश्चित करो। देश की प्रतिष्ठा और नैतिक दायित्व इसी में निहित है।

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