बिहार की शराबबंदी ‘सफलता’ का दावा, ‘मौतों’ की हकीकत |

बिहार की शराबबंदी कठोर कदम, कड़वी सच्चाई – क्या यही है उस बड़े फैसले का असली चेहरा? आज 8 जून, 2025 है। बिहार में पूर्ण शराबबंदी को लगभग नौ साल हो चुके हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2016 में यह ऐतिहासिक कदम उठाया था। ‘नशा मुक्त बिहार’ का सपना दिखाया गया था।
- यह फैसला महिलाओं के लिए सुकून लाया था।
- पारिवारिक शांति और आर्थिक सुधार की उम्मीद थी।
- पर जमीनी हकीकत सपनों से कहीं अधिक जटिल है।
मुख्य बिंदु :
- नीतीश सरकार की शराबबंदी के 9 साल बाद भी जहरीली शराब से मौतें जारी
- सारण, सिवान, बेगूसराय में सस्ती शराब ने गरीबों की जान ली
- अवैध शराब माफिया और पुलिस की मिलीभगत से नीति हो रही कमजोर
- पड़ोसी राज्यों से तस्करी रोकने में सरकार पूरी तरह नाकाम रही
- बिहार की जेलें शराबबंदी मामलों से भर गईं, न्यायिक प्रणाली पर दबाव
- राजस्व घाटा और पर्यटन क्षेत्र की धीमी रफ्तार से राज्य को आर्थिक झटका
- सरकार को जहरीली शराब और नीति की समीक्षा पर जवाब देना होगा
सरकारी दावे और जमीनी हकीकत का अंतर
बिहार सरकार सफलता का दावा करती है। वे समाज में सकारात्मक बदलाव बताते हैं। अपराधों में कमी और शांति का हवाला देते हैं।
- पर एक डरावनी सच्चाई भी सामने आई है।
- जहरीली शराब से मौतें रुकने का नाम नहीं ले रही हैं।
- यह स्थिति गंभीर सवाल उठाती है।
आंकड़ों का दर्दनाक विश्लेषण: सैकड़ों मौतें
विभिन्न विश्वसनीय रिपोर्टें सैकड़ों मौतों की पुष्टि करती हैं। सारण, सिवान, बेगूसराय में कई मौतें हुईं। 2022-2023 में सारण की घटनाएँ राष्ट्रीय मुद्दा बनीं। सरकारी आंकड़े इन्हें पूरी तरह नहीं मानते।
- मरने वाले अधिकतर गरीब मजदूर होते हैं।
- वे सस्ती, जानलेवा शराब का सेवन करते हैं।
- परिवार आजीविका का सहारा खो देते हैं।
शराबबंदी की विफलता के मूल कारण
सरकार विकास और बदलाव की बात करती है। पर क्या इन बदलावों की कीमत अनगिनत जिंदगियां हैं? पड़ताल में कुछ कारण सामने आए हैं।
- प्रभावी प्रवर्तन और भ्रष्टाचार का अभाव: शराबबंदी लागू हुई, पर प्रवर्तन में खामियां हैं। पुलिस और माफिया की मिलीभगत के आरोप लगते हैं। रिश्वतखोरी से अवैध धंधा बढ़ रहा है।
- मांग और आपूर्ति का सिद्धांत: प्रतिबंध से मांग कम नहीं हुई है। शराब भूमिगत होकर उपलब्ध हो रही है। एक बड़ा काला बाजार खड़ा हो गया है।
- चेक एंड बैलेंस की कमी: पड़ोसी राज्यों से तस्करी बड़ी समस्या है। सीमाओं पर प्रभावी निगरानी नहीं है। शराब आसानी से बिहार पहुँच रही है।
- जागरूकता और वैकल्पिक उपायों का अभाव: सरकार ने पुनर्वास केंद्र नहीं दिए। जागरूकता कार्यक्रम भी पर्याप्त नहीं थे। लोग जानलेवा स्रोतों की ओर धकेल दिए गए।
- न्यायिक प्रणाली पर अत्यधिक बोझ: लाखों लोग शराबबंदी में गिरफ्तार हुए हैं। बिहार की जेलें पूरी तरह भर गई हैं। न्यायिक प्रणाली पर भारी बोझ पड़ा है।
नीतिगत खामियां और सरकारी टिप्पणियाँ
शराबबंदी नीति के कई प्रावधान विवादित रहे हैं। परिवार के सदस्य को भी जिम्मेदार ठहराया गया। पूरे गांव पर सामूहिक जुर्माना लगाने का नियम था।
- ऐसी कठोर धाराएं भी शराब रोकने में विफल रहीं।
- पटना उच्च न्यायालय ने भी इस पर टिप्पणी की।
- अदालतों पर मुकदमों का भारी बोझ पड़ा है।
आर्थिक नुकसान और राजस्व की हानि
बिहार सरकार को राजस्व का भारी नुकसान हुआ है। शराब उद्योग राज्य के लिए आय का बड़ा स्रोत था। अब यह पैसा काले बाजार में जा रहा है।
- राज्य की वित्तीय स्थिरता प्रभावित हुई है।
- पर्यटन और आतिथ्य क्षेत्र भी प्रभावित हुए।
- विकास योजनाओं पर इसका असर पड़ा है।
अधिकारियों की मिलीभगत और आलोचनाएँ
कुछ सरकारी अधिकारी नीति से ‘बड़ा पैसा’ बना रहे हैं। पटना उच्च न्यायालय ने इस पर गंभीर टिप्पणी की। कानून प्रवर्तन एजेंसियां इसमें शामिल पाई गईं।
- कई राजनेताओं ने भी शराबबंदी पर सवाल उठाए हैं।
- भाजपा के कुछ नेताओं ने समीक्षा की मांग की है।
- यह नीति युवाओं के करियर को बर्बाद कर रही है।
सरकार से जनहित के सीधे सवाल
हम 2025 विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहे हैं। सरकार को इन गंभीर सवालों का जवाब देना होगा। जहरीली शराब से मौतें कैसे रुकेंगी? क्या कानून की समीक्षा की जाएगी?
- क्या माफिया पर सख्त कार्रवाई होगी?
- पुनर्वास केंद्र क्यों पर्याप्त नहीं हैं?
- अवैध शराब का धंधा क्यों पनप रहा है?
शराबबंदी एक सामाजिक सुधार थी। पर इसकी कीमत मानवीय जीवन है। बिहार की शराबबंदी की यह कड़वी सच्चाई अस्वीकार्य है। बिहार की जनता जवाब चाहती है। उम्मीद है सरकार गंभीर कदम उठाएगी। इससे बिहार नशा मुक्त और सुरक्षित बन सकेगा। यह मौतों का अड्डा नहीं बनना चाहिए। बिहार की शराबबंदी से जुड़ी यह कड़वी सच्चाई सबको जाननी चाहिए।
Post Comment