विधेयक मंजूरी समयसीमा पर राष्ट्रपति मुर्मू का सुप्रीम कोर्ट से बड़ा सवाल

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने विधेयक मंजूरी समयसीमा पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 महत्वपूर्ण प्रश्न सुप्रीम कोर्ट को भेजे हैं, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि राष्ट्रपति और राज्यपालों को राज्य विधानसभाओं द्वारा भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कोई समयसीमा का पालन करना आवश्यक है या नहीं, जब संविधान में ऐसी कोई समयसीमा निर्दिष्ट नहीं है।
मुख्य बिंदु :
- राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर राय मांगी है।
- तमिलनाडु मामला और सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देश इस संदर्भ की पृष्ठभूमि हैं।
- प्रश्न राज्यपाल, राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद की भूमिकाओं को स्पष्ट करने पर केंद्रित हैं।
- कानूनी विशेषज्ञों ने इस पहल को संवैधानिक विवेक और पारदर्शिता की दिशा में ऐतिहासिक माना है।
पृष्ठभूमि और संदर्भ :
यह कदम 8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक निर्णय के संदर्भ में आया है, जिसमें तमिलनाडु सरकार द्वारा राज्यपाल द्वारा उनकी स्वीकृति के लिए भेजे गए 10 विधेयकों पर निर्णय लेने में देरी के खिलाफ याचिका दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की थी। इस निर्णय में कहा गया कि यदि राज्य विधानमंडल किसी विधेयक को पुनः पारित करता है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर उस पर निर्णय लेना होगा।
राष्ट्रपति के 14 सवाल – पूरा विवरण
राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए सभी 14 सवाल नीचे शब्दशः शामिल किए गए हैं:
1] क्या अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के पास चारों विकल्पों में से कोई भी चुनने की स्वतंत्रता है?
2] क्या अनुच्छेद 200 में दी गई शक्तियां राज्यपाल के विवेक पर आधारित हैं या मंत्रिपरिषद की सलाह पर?
3] क्या राज्यपाल विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित रख सकते हैं या निर्णय लेना आवश्यक होता है?
4] क्या सुप्रीम कोर्ट संसद या राज्य विधानमंडल के लिए निर्णय समयसीमा तय कर सकता है?
5] क्या सुप्रीम कोर्ट यह तय कर सकता है कि राज्यपाल को कितने समय में निर्णय लेना चाहिए?
6] क्या राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयक पर निर्णय के लिए समयसीमा तय की जा सकती है?
7] क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयक पर न्यायिक समीक्षा संभव है?
8] क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानना अनिवार्य है या वह स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकते हैं?
9] क्या विधेयकों पर निर्णय लेने में देरी संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन मानी जाएगी?
10] क्या विधायिका द्वारा पारित दोबारा विधेयक को राज्यपाल अस्वीकार कर सकते हैं?
11] क्या राज्यपाल की असहमति का आधार न्यायालय में चुनौती योग्य है?
12] क्या राष्ट्रपति के निर्णय पर न्यायिक समीक्षा संभव है या वह पूर्ण रूप से संरक्षित हैं?
13] क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल के विधेयक लंबित रखने को असंवैधानिक घोषित कर सकता है?
14] क्या विधेयकों की मंजूरी के लिए समयसीमा तय करना संघीय ढांचे के खिलाफ माना जाएगा?
संविधानिक प्रावधान और व्याख्या :
अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधेयक स्वीकृति, अस्वीकृति और पुनर्विचार भेजने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 201 राज्यपाल को कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने की अनुमति प्रदान करता है। इन प्रावधानों में विधेयक निर्णय के लिए कोई निश्चित समयसीमा स्पष्ट नहीं की गई है। इस वजह से राज्यों और केंद्र के बीच अधिकारों की अस्पष्टता बार-बार उत्पन्न होती है।
कानूनी विश्लेषण और विशेषज्ञ प्रतिक्रिया :
वरिष्ठ अधिवक्ता के. पारासरन ने कहा कि यह पहल संविधानिक संतुलन की दिशा में साहसी कदम है। प्रसिद्ध अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की राय से कार्यपालिका को दिशा मिलेगी। कई विशेषज्ञों ने कहा कि राज्यपालों के विवेक की सीमाएं स्पष्ट करने की यह उपयुक्त घड़ी है। यह मामला कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए अत्यंत जरूरी है।
संघीय ढांचे पर संभावित असर :
अगर सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय करता है तो राज्यपालों के विवेक पर संवैधानिक सीमा लगेगी। यह निर्णय संघीय व्यवस्था की व्याख्या में बड़ा प्रभाव डाल सकता है। केंद्र और राज्यों के बीच विधायी प्रक्रिया की पारदर्शिता में यह बड़ा सुधार माना जाएगा। विधेयक मंजूरी में अनिश्चितता समाप्त होने से विधायी प्रक्रिया तेज और प्रभावी हो सकेगी।
Post Comment